________________
ताओ उपनिषद भाग ४
232
तो जब ध्यान गहरा होता है और निर्दोष होते-होते इतना निर्दोष हो जाता है कि जैसे आप फिर से गर्भ में पहुंच गए। अब की बार मां का गर्भ नहीं होता, सारा अस्तित्व मां का गर्भ हो जाता है। इस बार इस पूरे अस्तित्व में आप एक हो जाते हैं । परमात्मा श्वास लेता है, परमात्मा जीवन देता है; आप सारी चिंता उस पर छोड़ देते हैं। आप ऐसे होते हैं, जैसे गर्भस्थ शिशु । यह समाधि है। ध्यान जब गहरा होते-होते ऐसी जगह पहुंच जाता है जहां गर्भस्थ शिशु की चेतना आपके भीतर जन्म लेती है। बोधिवृक्ष के नीचे बैठे हुए बुद्ध ऐसे गर्भस्थ शिशु हैं । कहीं कोई उपद्रव नहीं रहा। कोई उपद्रव का कारण नहीं है। आप अपने घर वापस आ गए। यह अस्तित्व विरोधी नहीं रहा, इससे कोई संघर्ष न रहा; यह अस्तित्व गर्भ हो गया।
अस्तित्व को गर्भ बना लेने की कला ही धर्म है। यह पूरा अस्तित्व घर जैसा मालूम होने लगे, एट होम आप हो जाएं - आकाश, चांद-तारे, पृथ्वी सब आपके लिए चारों तरफ से सहारा दे रहे हैं। अभी भी दे रहे हैं; जब आप लड़ रहे हैं तब भी दे रहे हैं। जिस दिन आपकी लड़ाई छूट जाती है, और आप इस गर्भ में प्रवेश कर जाते हैं...। हम मंदिर के अंतरस्थ कक्ष को गर्भ कहते हैं इसी कारण । मंदिर के अंतरस्थ कक्ष में पहुंच जाना गर्भ में पहुंच जाना है।
पश्चिम का मनोविज्ञान भी, निंदा के स्वर में सही, लेकिन इस सत्य को स्वीकार करने लगा है कि मोक्ष की, निर्वाण की खोज गर्भ की खोज है। इसे बहुत अहोभाव से नहीं, स्वागत के लिए नहीं, निंदा के लिए ही पश्चिम का मनोविज्ञान स्वीकार करने लगा है कि निर्वाण की खोज गर्भ की खोज है। और पश्चिम की धारणा में पीछे लौटना तो हो ही नहीं सकता, इसलिए यह खोज गलत है, खतरनाक है, मनुष्य के विकास के लिए बाधा है।
लेकिन मैं मानता हूं कि शीघ्र उन्हें समझ में आना शुरू होगा। जैसे-जैसे यूक्लिड की ज्यामेट्री विदा हो रही है और नॉन-यूक्लिडियन ज्यामेट्री प्रवेश कर रही है, और जैसे-जैसे पुरानी रेखाबद्ध धारणाएं खो रही हैं वैसे-वैसे यह धारणा भी खोएगी। गर्भ ही अंतिम जगह भी होने वाली है। और जो व्यक्ति पुनः गर्भ की अवस्था तक नहीं पहुंच पाता वह अधूरा मर गया। इसलिए हम कहते हैं कि उसे बार-बार जन्म लेना पड़ेगा, क्योंकि गर्भ का अनुभव उसका पूरा नहीं हो पाया; अधूरा अनुभव अटका रह गया। अधूरा भटकाता है। जो व्यक्ति मरते क्षण में ऐसी अवस्था में पहुंच गया जैसी अवस्था में जन्म के क्षण में था, उतना ही शांत हो गया और पूरा अस्तित्व उसका गर्भ बन गया, उसके लिए दूसरे जन्म की कोई जरूरत न रहेगी। बात समाप्त हो गई। उसका अनुभव पूरा हो गया, शिक्षण पूरा हो गया। इस विद्यालय में लौटने की कोई आवश्यकता नहीं है। मरते क्षण में ऐसे मरना जैसे कोई मां के गर्भ में प्रवेश कर रहा है। क्या चिंता है? क्या डर है? क्या घबड़ाहट है ? रोकने की कोई जरूरत नहीं है; सहज स्वीकार से प्रवेश है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बच्चा जब पैदा होता है तो सबसे बड़ा आघात पहुंचता है। उसको वे ट्रॉमा कहते हैं। सबसे बड़ा आघात पहुंचता है बच्चा जब पैदा होता है । होगा ही। क्योंकि बच्चा इतने सुख से इतने महादुख में आता है। मां के पेट में सुख ही सुख है। और बच्चा ऐसे तैर रहा है मां के पेट में जैसा कि आप कल्पना करते हैं - क्षीर सागर में विष्णु तैर रहे हैं; अनंत शेषनाग के ऊपर, उसकी शय्या पर लेटे हैं। ठीक बच्चा मां के गर्भ में सागर में ही तैरता है । और मां के पेट में जो पानी होता है जिसमें बच्चा तैरता है, जो बच्चे को सम्हालता है, वह पानी ठीक सागर का ही पानी होता है। उतना ही नमक, उतने ही केमिकल्स होते हैं। बच्चा उसमें तैर रहा है। कोई धक्का भी नहीं पहुंचता। वह जो पानी का वर्तुल है चारों तरफ वह उसे सब तरह के धक्कों से बचाता है। मां गिर भी पड़े तो भी बच्चे को उतना धक्का नहीं पहुंचता जितना मां को पहुंचता है। बच्चा तैरता ही रहता है। इस शेषनाग की शय्या से, इस सागर में डूबे होने से बच्चे का एकदम निष्कासन होता है; फेंका जाता है बाहर, मां से संबंध टूटता है।
तो मनोवैज्ञानिक कहते हैं, यह ट्रॉमैटिक है, बहुत आघातपूर्ण है, गहरा घाव बनता है। और इस घाव से आदमी मरते दम तक भी मुक्त नहीं हो पाता। वह पीड़ा बनी ही रहती है । बच्चा कंप जाता होगा। क्योंकि जहां कोई