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ताओ उपविषद भाग ४
डूबो-जो कि व्यर्थ है, जो कि एक तरह की निद्रा है, जो कि इस व्यक्ति की शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग न हो पाए, इसका उपाय है। इन लोगों ने लोगों को गलत रास्ते पर लगाया।
मेरे पास लोग आते हैं। वे कहते हैं, आप लोगों को ध्यान करने को कहते हैं, समाधि सिखाते हैं, और लोग भूखे मर रहे हैं। और फलानी जगह अकाल पड़ा हुआ है। और फलानी जगह आदिवासियों को शिक्षा देने की जरूरत है। वहां भेजिए। बैठने से क्या होगा? ध्यान से क्या होगा?
मैं उनको कहता हूं कि अगर इनके पास ध्यान नहीं है तो ये वहां जाकर भी क्या करेंगे? अगर बिना ध्यान के इनको भेज दिया अकाल में सेवा करने के लिए तो ये वहां से रुपया बना कर वापस लौट आएंगे। जो रोटी मिलनी चाहिए थी उसमें ये बीच के मध्यस्थ हो जाएंगे। चार रोटी भेजी जाएंगी तो एक पहुंच जाए अकाल भूखे आदमी तक तो बहुत है। क्योंकि ये बीच के मध्यस्थ, तीन रोटी इनको भी चाहिए।
. मगर हमारी-सारे जगत में तीसरी कोटि का आदमी, वह जो शूद्र है...। शूद्र कोई जन्म से नहीं होता। कोई शूद्र के घर में पैदा होने से शूद्र नहीं होता। तीसरी कोटि के आदमी को मैं शूद्र कहता हूं। कोई ब्राह्मण जन्म से नहीं होता। बुद्ध ने कहा है, जन्म से ब्राह्मण होने का क्या संबंध, ब्राह्मण बनना होता है। बुद्ध ने कहा है, सभी शूद्र । की तरह पैदा होते हैं, उनमें से कुछ ब्राह्मण बन जाते हैं; बाकी शूद्र रह जाते हैं।
यह जो तीसरी कोटि का मनुष्य है उसने कहावतें प्रसिद्ध कर रखी हैं। क्योंकि वह भी अपनी सुरक्षा करता है। वह भी हंसता है, वह भी व्यंग्य करता है, वह भी ताने कसता है। उसने कहावत बना रखी है कि जो ताओ को समझता है, उसकी बुद्धि मंद मालूम पड़ती है; बुद्धिमान आदमी इस तरफ नहीं जाते। इस तरफ तो वे ही लोग जाते हैं जिनके पास बुद्धि नहीं है। इस भांति वह अपने को बुद्धिमान समझ सकता है।
जीसस पर किताबें लिखी जाती हैं, जिनमें सिद्ध किया जाता है कि जीसस रुग्ण थे, मानसिक रूप से बीमार थे; जीसस स्वस्थ नहीं थे। हजार तरह की बातें लिखी जाती हैं। यह तीसरी कोटि का मनुष्य सब तरह के तर्क खोजता है कि जीसस गलत थे। तो फिर पीछे जाने की कोई जरूरत नहीं रह गई। जीसस को गलत सिद्ध करने से हमास छुटकारा हो जाता है। एक बोझ, एक चुनौती मिट जाती है। फिर हम अपने रास्ते पर सुगमता से चल पाते हैं।
अभी हिंदुस्तान के तीसरी कोटि के आदमियों में इतनी हिम्मत नहीं आई, लेकिन जल्दी आ जाएगी। बढ़ती जा रही है उनकी हिम्मत। जल्दी ही वे लिखेंगे कि महावीर रुग्ण थे, पैथालाजिकल थे, न्यूरोटिक थे; इनके दिमाग में कुछ गड़बड़ थी। और कारण बराबर खोजे जा सकते हैं, क्योंकि परम संतों के जीवन में कुछ ऐसी बातें मिल जाती हैं जो परम पागलों के जीवन में होती हैं। और मिल जाने का कारण है, क्योंकि पागल भी समाज से बाहर गिर जाते हैं और संत भी समाज के बाहर उठ जाते हैं। यह बाहर उठ जाना समाज से दोनों का समान होता है। इसलिए उनमें बातें मिल जाती हैं।
महावीर अपने बाल लोंचते थे, उखाड़ देते थे। क्योंकि महावीर कहते थे, किसी यंत्र का, किसी साधन का उपयोग नहीं करना; जितना स्वावलंबन हो सके उतना हितकर है। जो मैं कर सकू, वह काम दूसरे से नहीं लेना। यह उनकी परम निष्ठा थी और बड़ी मूल्यवान थी कि जो मैं कर सकू वह दूसरे से क्यों लेना! और सभी कुछ मैं कर सकता हूं तो सभी कुछ मैं कर लूंगा। क्योंकि वही मेरी स्वतंत्रता होगी। मैं दूसरे पर निर्भर हूं तो गुलाम हो जाता हूं। तो महावीर अपने बाल अपने हाथ से, जब बढ़ जाते, तो खींच कर निकाल देते थे। पागलों का एक वर्ग होता है जो अपने बाल लोंचता है। आपको भी जब कभी क्रोध आता है या गुस्सा, तो बाल लोंचने का मन होता है। खयाल किया? स्त्रियां तो अक्सर जब बहुत ज्यादा देवी रूप में आ जाती हैं तो बाल, अपने बाल खींचने लगती हैं। पागलपन में कुछ बाल खींचने का अर्थ मालूम पड़ता है। कारण? अपने को नुकसान पहुंचाना।
2.12