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ताओ उपनिषद भाग ४
अगर गरीब कोशिश करेगा अमीर को मिटाने की तो वह नहीं मिटा पाएगा, सिर्फ दूसरे अमीरों को अपने कंधे पर बिठा लेगा। अगर अमीर कोशिश करेगा गरीबों को मिटाने की तो असंभव है, क्योंकि उनके मिटने पर तो वह खुद भी मिट जाएगा। एक ही उपाय है : या तो दोनों रहें; या दोनों परिपूरक हो जाएं और विसर्जित हो जाएं। और दोनों जान लें कि हम जुड़े हैं; एक ही खेल के दो हिस्से हैं; न कोई ऊपर है, न कोई नीचे है; धूप-छाया की तरह। तो इस जमीन पर एक समाजवाद का उदभव हो सकता है जो संघर्षशून्य हो और जिसमें सत्ता नाममात्र को न बदले, बल्कि विसर्जित हो जाए। उसकी धारणा ही वेद-उपनिषद के ऋषियों को रही है-एक ऐसा जगत जहां द्वंद्व द्वंद्व न प्रतीत मालूम हो, परिपूरक बन जाए।
'सच तो यह है कि रथ के अंगों को अलग-अलग कर दो, फिर कोई रथ नहीं बचता है।' .
बौद्ध कथा है। भिक्षु नागसेन एक बहुत अनूठा भिक्षु हुआ। किसी सम्राट ने नागसेन को निमंत्रित किया कि वह बुद्ध-धर्म का उपदेश देने आए। नागसेन के पास जब वजीर गए और उन्होंने निमंत्रण दिया तो नागसेन ने कहा, जरा कठिनाई है, क्योंकि नागसेन जैसा कोई है नहीं। उपदेश होगा, लेकिन सम्राट को कहना, नागसेन जैसा कोई है नहीं। आना होगा, उपदेश होगा, लेकिन नागसेन जैसा कोई है नहीं।
सम्राट ने समझा कि आदमी विक्षिप्त मालूम होता है। आएगा, उपदेश देगा, और कहता है नागसेन जैसा कोई नहीं है! तो आएगा कौन? उपदेश कौन देगा? फिर भी सम्राट ने कहा, आदमी रसपूर्ण है; आने दो।
नागसेन के लिए रथ भेजा। रथ पर बैठ कर नागसेन राजधानी आया, महल के द्वार पर, तो सम्राट स्वागत के लिए आया। तो सम्राट ने कहा, नागसेन, स्वागत है! भिक्षु, स्वागत है! नागसेन ने फिर कहा, स्वागत है, ठीक। स्वागत स्वीकार है, यह भी ठीक। लेकिन नागसेन जैसा कोई है नहीं। तो सम्राट ने कहा, आप पहेलियां मत बूझें। बात साफ करें, मतलब क्या है? फिर आया कौन? फिर स्वागत किसका? फिर स्वागत स्वीकार कौन करता है? यह कौन है जो बोल रहा है?
तो नागसेन ने कहा, इस रथ पर बैठ कर मैं आया हूं। तो एक काम करें, रथ है? सम्राट ने कहा, निश्चित है। नहीं तो यहां आना आपका कैसे होता? रथ सामने खड़ा है। तो नागसेन ने कहा, घोड़ों को अलग कर लें। घोड़े अलग कर लिए गए। तो नागसेन ने पूछा, क्या ये घोड़े रथ हैं? सम्राट ने कहा-सम्राट तब थोड़ा चौंका-सम्राट ने कहा, घोड़े निश्चित ही रथ नहीं हैं; घोड़े घोड़े हैं। अलग कर दें। फिर दोनों पहिए निकलवा लिए और पूछा कि क्या ये रथ हैं? सम्राट ने कहा, ये पहिए हैं, रथ नहीं। लेकिन सम्राट अब डरा। उसने समझा कि वह अब फंसा। यह तर्क तो खतरनाक जगह ले जा रहा है। एक-एक अंग रथ का निकलता गया और सम्राट को कहना पड़ा-यह भी रथ नहीं, यह भी रथ नहीं, यह भी रथ नहीं। और पीछे कुछ भी न बचा। तो नागसेन ने कहा, रथ कहां है? क्योंकि जो भी निकाला गया वह रथ नहीं था; रथ पीछे बचना चाहिए, शुद्ध रथ पीछे बचना चाहिए। सम्राट ने कहा, मुझे क्षमा करें, भूल हो गई; रथ एक जोड़ ही है। नागसेन ने कहा, मैं भी बस एक जोड़ हूं। एक-एक चीज निकालते जाएं, पीछे शून्य बचेगा, कुछ भी न बचेगा। इसलिए नागसेन कोई नहीं। आना होगा, उपदेश होगा, स्वागत स्वीकार है; लेकिन नागसेन जैसा कोई भी नहीं।
इसलिए बुद्ध का-यह जो सिद्धांत नागसेन ने दिया, यह बुद्ध का अनत्ता का सिद्धांत है, नो सेल्फ। बुद्ध कहते हैं, भीतर कोई भी नहीं है। एक-एक अंग अलग कर लें, जोड़ टूट जाएंगे; भीतर कोई भी नहीं है। और जो इस बात को जान लेता है कि भीतर कोई भी नहीं है वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया। फिर अकड़ क्या रही? अहंकार क्या रहा? बचाना किसको है? उठाना किसको है? वह द्वंद्व से छूट गया। जो है ही नहीं, उसका जन्म कैसा? उसकी मृत्यु कैसी?
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