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अस्तित्व में सब कुछ परिपूरक हैं
उस क्षण को थोड़ा सा सोचें। यह ध्यान की अंतिम, चरम अवस्था हो गई, पराकाष्ठा हो गई। उस क्षण में जब फ्रांसिस ने कोढ़ी के ओंठ पर ओंठ रखे, गलते हुए बदबू से भरे हुए ओंठ पर, उस समय फ्रांसिस वहीं पहुंच गया जहां बुद्ध बोधिवृक्ष के नीचे पहुंचे। जरा भी फर्क न रहा। क्योंकि यह संभव ही तभी हो पाया जब द्वंद्व छूट गया कि क्या सुंदर, क्या कुरूप; कौन अच्छा, कौन बुरा; क्या सुगंध, क्या दुर्गंध। दोनों छूट गए। तो पीछे जो एक था वह प्रकट हो गया। फ्रांसिस ने कहा है, मैंने आंख खोल कर देखी, मुझे जीसस के दर्शन हुए।
जरूरी नहीं कि जीसस वहां मौजूद हो गए हों, फ्रांसिस के भीतर यह हुआ। कोढ़ी तिरोहित हो गया, जीसस के दर्शन हुए। फ्रांसिस आदमी न रहा, इस क्षण से परमात्मा हो गया।
द्वंद्व जहां गिर जाए; उसे गिराने के हजार उपाय हो सकते हैं। हर आदमी का शायद अलग-अलग उपाय होगा। क्योंकि-मैं आपसे नहीं कहता कि आप ऐसा करें क्योंकि हो सकता है कि आपको दुर्गंध न आती हो। तो आप कोढ़ी के पास बैठे रहें और आपको परमात्मा का अनुभव न होगा। कि आप अस्पताल में काम करते-करते अभ्यासी हो गए हों, तो आप कोढ़ी के पैर दाब दें निर्लेप भाव से, जैसे कुछ हो ही नहीं रहा, एक काम पूरा कर रहे हैं। तो आपको कुछ न होगा। क्योंकि क्रांति आपके भीतर घटित होनी है। वह क्रांति तो तभी घटित होती है जब द्वंद्व अपने शिखर पर होता है और आप उस द्वंद्व को छोड़ देते हैं।
'क्या यह सच नहीं है कि वे सहारे के लिए साधारण जनों पर निर्भर हैं?'
एक यहूदी फकीर का मुझे स्मरण आता है। बालसेम उसका नाम था। यहूदियों का कोई धार्मिक उत्सव करीब था, पासओवर। और बालसेम गांव की बड़ी सभा में बोल कर वापस लौटा। सिनागाग से वापस आया तो बहुत थका-मांदा था। तो उसकी पत्नी ने कहा कि तुमने ऐसी कौन सी बातें कहीं कि तुम्हारी इतनी शक्ति खो गई? तुम बहुत दुर्बल मालूम पड़ते हो! गए थे तब तो तुम बड़े शक्तिशाली दिखाई पड़ते थे। तुमसे जैसे कुछ खो गया है। इतने उदास, इतने दुर्बल! क्या हुआ? सभा में क्या हुआ? बालसेम ने कहा, मैं लोगों को समझा रहा था कि गांव में जो धनी हैं, पासओवर के उत्सव के समय उनका फर्ज है कि गरीबों को कपड़े और भोजन दें। वह उन्हीं का है, उन्हें लौटा दें; कम से कम इस उत्सव के दिनों में गांव में कोई गरीब न हो, कोई भूखा न हो, कोई नंगा न हो। तो पत्नी ने कहा-और संदेह से पूछा कि क्या तुम लोगों को राजी कर पाए? क्या लोग राजी हुए इस बात के लिए, इस विचार के लिए? तो बालसेम ने बड़ी अदभुत बात कही। बालसेम ने कहा, आई वुड से फिफ्टी-फिफ्टी, आई कनविंस्ड दि पुअर। पचास प्रतिशत, फिफ्टी-फिफ्टी; गरीबों को मैंने राजी कर लिया।
पर गरीबों के राजी होने से कोई हल ही नहीं होता; राजी अमीर को होना था।
जिंदगी में सब जगह बंटाव है आधा-आधा। गरीब को राजी करने में कोई कठिनाई नहीं है कि दान महा धर्म है; गरीब पहले से ही राजी है। अमीर को राजी करने में कठिनाई है। क्योंकि अमीर सदा ऐसा सोचता है, उसके पास से जो भी जा रहा है गरीब की तरफ वह उसके दुश्मन के पास जा रहा है, उसके विपरीत के पास जा रहा है, विरोधी के पास जा रहा है, तो बामुश्किल छोड़ता है। लेकिन उसे पता नहीं कि वह जिसे विपरीत समझ रहा है, वह परिपूरक है; उसके बिना अमीर के होने का कोई उपाय नहीं है। वह है, इसलिए अमीर है। वे दोनों एक ही खेल के दो भागीदार हैं, साझीदार हैं। और वह जो दूसरा साझीदार है वह विपरीत नहीं है। यह अगर बोध आ जाए तो इस जमीन पर ठीक-ठीक समाजवाद का उदभव हो सकता है।
अगर विपरीत विपरीत न मालूम पड़ें, परिपूरक मालूम पड़ें, तो किसी से छीनने की और किसी को छीनने की जरूरत नहीं है। अगर दूसरा हमारा ही छोर है, यह प्रतीति गहन हो जाए, तो दुनिया से अमीरी और गरीबी दोनों विसर्जित हो सकती हैं।
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