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अस्तित्व में सब कुछ परिपूरक है
लाओत्से ठीक वही प्रतीक ले रहा है। वह कह रहा है, 'सच तो यह है कि रथ के अंगों को अलग-अलग कर दो, और कोई रथ नहीं बच रहता।'
गरीब को अलग कर लो, अमीर खिसका, गिरा। दीन को अलग कर लो तो वह जो अकड़ा हुआ है, उसकी अकड़ खो गई। दुर्बल को अलग कर लो तो शक्तिशाली मिटा। यहां एक चीज खींचो तो दूसरी गिरनी शुरू हो जाती है; क्योंकि जोड़ है। और दोनों को अलग कर लो तो पीछे शून्य बचता है, वहां कुछ भी बचता नहीं। और ये दोनों परिपूरक हैं, ये एक-दूसरे को सहारा दिए हैं; रथ के सभी अंग एक-दूसरे को सहारा दिए हैं और रथ बने हुए हैं। सहारे में रथ है। वह जो जोड़ है सबका, उसमें रथ है; वह जोड़ रथ है। और एक-एक अंग को निकालें तो जोड़ तो निकलता नहीं, अंग निकल आते हैं; जोड़ शून्य की तरह पीछे रह जाता है; वह पकड़ में भी नहीं आता। पहिया जुड़ा है। जहां पहिया जुड़ा है वहां रथ है, उस जोड़ में। लेकिन पहिया अलग कर लो, फिर और अंग अलग कर लो, पीछे खाली जोड़ रह जाते हैं। जोड़ तो दिखाई नहीं पड़ते; जोड़ तो तभी दिखाई पड़ते हैं जब दो चीजें जुड़ती हैं।
इसे ऐसा समझें कि आप किसी के प्रेम में हैं, गहन प्रेम में हैं। आपको अलग कर लें, आपके प्रेमी को अलग कर लें, तो प्रेम बीच में बच नहीं रहता। बचना चाहिए। क्योंकि आप कहते थे, दोनों के बीच बड़ा प्रेम है। दोनों के हट जाने पर प्रेम बचता नहीं, वहां सिर्फ शून्य रह जाता है।
यह थोड़ा बारीक है, और बहुत अस्तित्वगत सवाल है। जब हम दो प्रेमियों को अलग करते हैं तो बीच में कुछ भी नहीं बचता। तो क्या दोनों प्रेमी भ्रम में थे कि बीच में प्रेम है? प्रेम एक जोड़ है; दोनों की मौजूदगी से प्रकट होता था; दोनों के हट जाने से शून्य में लीन हो जाता है। ऐसा समझें कि दो के जुड़ने पर एक खास तरह की परिस्थिति बनती थी जिसमें प्रेम प्रकट होता था। वह जो प्रेम शून्य में छिपा है, बीज में पड़ा है, वह दो जब एक खास मनोदशा में जुड़ते थे तो आविर्भूत होता था, शून्य से बाहर आता था और अस्तित्व बनता था, प्रकट होता था। जब दोनों हट जाते हैं, परिस्थिति खो जाती है; प्रकट होने का उपाय समाप्त हो जाता है; वह जो प्रकट हुआ था वापस शून्य में लीन हो जाता है। तो जब भी दो प्रेमी मौजूद होंगे, प्रेम प्रकट हो जाएगा। जब भी भक्त मौजूद होगा, प्रार्थना मौजूद होगी, भगवान मौजूद हो जाएगा। भक्त को अलग कर लो, भक्ति खो गई, भगवान खो गया। वह तीनों का जोड़ है; एक संयोग है।
लाओत्से कहता है कि जैसे रथ के सारे अंगों को हम अलग कर लें, पीछे कोई रथ नहीं रह जाता। ऐसे ही हम सब इस समाज के अंग हैं। इसमें न कोई श्रेष्ठ है और न कोई निकृष्ट है। क्योंकि निकृष्ट भी हट जाए तो रथ टूटता है; श्रेष्ठ भी हट जाए तो भी रथ टूटता है। एक बार श्रेष्ठ को छोड़ा भी जा सके, निकृष्ट को छोड़ना बड़ा मुश्किल है। सम्राट के बिना होना आसान है, लेकिन मेहतर के बिना होना बहुत मुश्किल हो जाएगा।
इसीलिए कुछ समाज समाज ही नहीं बन पाते; क्योंकि निकृष्ट को उन्होंने स्वीकार नहीं किया। उदाहरण के लिए जैन हैं। जैनों का कोई समाज नहीं है। क्योंकि जैनों से कहो कि तुम एक बस्ती बसा कर बता दो सिर्फ जैनियों की, तो पता चल जाएगा कि इनके पास कोई समाज नहीं है। क्योंकि भंगी कौन बनेगा? चमार कौन बनेगा? जैन एक बस्ती बसा कर बता दें तो उसका अर्थ हुआ कि उनका समाज है। नहीं तो केवल धारणा है, समाज नहीं है। शोषक हैं! एक गांव भी बसा कर नहीं बता सकते अपना। क्योंकि फिर कौन? सिर्फ जैन हैं। क्या करेंगे? उनको हिंदू मेहतर चाहिए, मुसलमान चमड़ा बनाने वाला चाहिए पड़ेगा, कोई ईसाई चाहिए पड़ेगा। तो फिर वे समाज नहीं हैं। उनके पास समाज की अभी तक कोई धारणा नहीं है; सिर्फ एक खयाल है। फौरन मर जाएंगे; अगर एक गांव जैनियों का हो वे सब मर जाएंगे। और या फिर उनको नीचे उतरना पड़ेगा और उनको मानना पड़ेगा कि वह मेहतर जो था वह इतना जरूरी था कि उसके बिना जीया नहीं जा सकता।
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