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ताओ उपनिषद भाग ४
इकोलाजी एक नया शास्त्र विकसित हो रहा है जो यह कहता है कि जीवन संयुक्त है। इसमें एक भी कड़ी को तुमने बदला कि तुम पूरे जीवन को प्रभावित करोगे। जीवन ऐसा है जैसे मकड़ी का जाला। उसके एक धागे को भी हिलाओ, पूरा जाला हिलेगा। जरा सा भी कहीं कुछ किया तो पूरे जाले पर प्रभाव पड़ता है।
लाओत्से इसलिए बिलकुल विपरीत था। वह कहता था, प्रकृति को छुओ ही मत। वह जैसी है, ठीक है। क्योंकि जब तक तुम्हें पूर्ण प्रकृति का ज्ञान नहीं है तब तक तुम जो भी करोगे उससे उपद्रव होगा; क्योंकि तुम जो भी करोगे वह आंशिक होगा। कुछ कड़ियां टूटेंगी, कुछ कड़ियां खो जाएंगी। तुम मुसीबत में पड़ जाओगे। तो लाओत्से की तो मान्यता है, प्रकृति को छूना ही मत। उसको जीयो, छुओ मत। और उसमें इस पूरी तरह से जीयो कि तुम्हें जीवन का एकत्व पता चलने लगे।
अभी विज्ञान को पता चलना शुरू हुआ कि जीवन एक है। ऋषियों को सदा से पता था। उन्हें ध्यान से पता था कि जीवन एक है। लेकिन विज्ञान को अभी सब तरह की मुसीबतों से पता चलना शुरू हो रहा है कि जीवन एक है; यहां सब चीजें जुड़ी हैं। और एक श्रृंखला है, उस श्रृंखला में सब चीजें बंधी हैं। हमें दिखाई पड़े श्रृंखला, न दिखाई पड़े; समझ में आए, न समझ में आए।
अगर आप पुलिस स्टेशन से पूछे सारी दुनिया के, तो पूर्णिमा की रात ज्यादा अपराध होते हैं; पूर्णिमा की रात सारी दुनिया की पुलिस को ज्यादा सजग रहना पड़ता है। क्योंकि चांद से आदमी का मस्तिष्क जुड़ा है। पूर्णिमा की रात लोग ज्यादा अपराध भी करते हैं, ज्यादा प्रेम में भी गिरते हैं। सब तरह के उपद्रव पूर्णिमा की रात बढ़ जाते हैं। क्योंकि चांद प्रभावी है। जैसे-जैसे चांद बढ़ता है वैसे-वैसे आदमी के मस्तिष्क में तरंगें बढ़ती हैं। पुराना हिंदी का शब्द है, पागल आदमी को हम कहते हैं चांदमारा। अंग्रेजी में भी जो शब्द है लूनाटिक, वह लूनार से बना है, चांद से-पगला। वह चांद से ही बना हुआ शब्द है। जैसे-जैसे अंधेरी रात बढ़ती है वैसे-वैसे आदमी उतना उपद्रव नहीं करता, शांत होता चला जाता है।
अमावस की रात-आप हैरान होंगे, आपने शायद कभी नहीं सोचा होगा, आप सोचेंगे अमावस की रात ज्यादा उपद्रव होना चाहिए-अमावस की रात सबसे कम उपद्रव होता है। पूर्णिमा की रात सबसे ज्यादा उपद्रव होता है। क्योंकि समुद्र ही प्रभावित नहीं होता चांद से, आप भी तरंगित होते हैं। आपके शरीर में भी वही पानी है जो समुद्र में है। पचहत्तर प्रतिशत पानी है शरीर में, पच्चीस प्रतिशत दूसरी चीजें हैं। पचहत्तर प्रतिशत पानी है, और उस पानी में ठीक वही अनुपात है रासायनिक द्रव्यों का जो समुद्र के पानी में है। क्योंकि वैज्ञानिक कहते हैं, आदमी का पहला जन्म मछली की तरह हुआ, तो अभी भी उसके शरीर में जो पानी है वह समुद्र का ही है। तो पचहत्तर प्रतिशत पानी है आपके भीतर समुद्र का। और जब चांद बढ़ता है तो वह पचहत्तर प्रतिशत पानी भी आंदोलित होना शुरू हो जाता है; फिर आपके भीतर गड़बड़ शुरू होती है।
ज्योतिष इसी का विस्तार था; इसी बात का खयाल था कि सारे जगत में जो कुछ भी है, चांद हैं, तारे हैं, ग्रह हैं, उपग्रह हैं, नक्षत्र हैं, वे सभी आपको प्रभावित कर रहे हैं। क्योंकि सब जुड़े हैं, सब संयुक्त हैं। कहीं भी कुछ होता है तो उसकी प्रतिध्वनि जगत के दूसरे कोने तक सुनी जाती है। जरा सा भी एक पत्थर छोटा सा, कंकड़ झील में गिरता है तो पूरी झील पर उसकी तरंगें फैल जाती हैं। ठीक वैसा ही जीवन में हो रहा है। जरा सी कोई घटना, सारा जीवन प्रभावित होता है।
इस एकता का बोध हो जाए, इसका खयाल आने लगे, इसकी प्रतीति होने लगे, तो हम ब्रह्म की तरफ अग्रसर होने शुरू हो जाते हैं। और ध्यान रहे, शास्त्रों से उस एक का पता न चलेगा। जीवन के अनुभव से ही, जीवन की संयुक्तता की प्रतीति, साक्षात्कार से ही उस एक का अनुभव होना संभव है।
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