________________
ताओ उपनिषद भाग ४
तो आप समझ लें-आपके खयाल में नहीं आएगा एकदम से-जैसे आप अकेले रेगिस्तान में छोड़ दिए गए हों, जहां बोल भी नहीं सकते, अपना दुख भी नहीं कह सकते, अपने सुख की खबर भी नहीं दे सकते। कोई वहां है ही नहीं; चिल्लाते हैं तो अपनी ही आवाज गूंज कर तिरोहित हो जाती है; कोई प्रत्युत्तर नहीं आता। जैसे रेगिस्तान में छूटे अकेले आदमी की दुख-दशा हो जाती है, दुर्दशा हो जाती है, ठीक वैसे ही रेगिस्तान यहां भी हैं। जब कोई धन के पूरे शिखर पर पहुंचता है तो अकेला हो गया; रेगिस्तान में हो गया। जब कोई राजनीति के शिखर पर पहुंच जाता है तो अकेला हो गया; रेगिस्तान में हो गया। यश के शिखर पर पहुंच गया, अकेला हो गया। कई तरह के रेगिस्तान हैं, तरह-तरह के रेगिस्तान हैं। और हम सब उनकी तलाश कर रहे हैं।
लाओत्से कहता है, 'यही कारण है कि राजा और भूमिपति अपने को अनाथ, अकेला और अयोग्य कहते हैं।'
क्योंकि जिन पर वे निर्भर हैं उनसे ही अपने को दूर रखते हैं, जिन पर जीवन निर्भर है उनसे ही अपने को काट लेते हैं। अगर सम्राट के द्वार पर भिखमंगा आए तो सम्राट मिलेगा भी नहीं। वह कहेगा, मैं सम्राट, तू भिखमंगा! लेकिन उसका सम्राट होना इस भिखमंगे पर निर्भर है। यह उसका मित्र है, यह उसका सगा-संगी है, यह उसका परिवार का सदस्य है। ये दोनों एक ही कड़ी के दो पहलु हैं; एक ही कड़ी के दो छोर हैं। सम्राट को चाहिए कि उसका . स्वागत करे। सम्राट को चाहिए कि उसे मेहमान बनाए। सम्राट को चाहिए कि उसका आदर करे। सम्राट को चाहिए कि कहे, रुको कुछ देर मेरे पास, क्योंकि हम-तुम संगी-साथी हैं। मैं एक छोर पर, तुम दूसरे छोर पर; तुम्हारे बिना मैं नहीं हो सकता, मेरे बिना तुम भी नहीं हो सकते।
अगर कोई सम्राट ऐसा कर पाए तो फिर अकेला अनुभव नहीं करेगा। फिर तो वह सबके भीतर व्याप्त हो जाएगा और उसे एक का अनुभव शुरू हो जाएगा। यह उसकी साधना हो जाएगी। अगर सम्राट भिखारी को गले लगा ले और कहे कि तुम मेरे मित्र हो, तो उसकी एक की खोज शुरू हो गई। थोड़े ही दिनों में सम्राट सम्राट नहीं मालूम पड़ेगा खुद को भिखारी भिखारी मालूम नहीं पड़ेगा। दोनों के भीतर का जो एक सत्य है, वह अनुभव में आने लगेगा। द्वंद्व विसर्जित हो जाएगा।
इसलिए हमने फिक्र की थी कि सम्राट भिखारी को सम्मान दे; आदर दे; शक्ति झुके उनके सामने जिनके पास कुछ भी नहीं है, ताकि उस एक की खोज जारी रहे। अगर आप सुंदर हैं तो असुंदर व्यक्ति की तरफ मुंह मत मोड़ लें। वह आपका परिवार का सदस्य है। उसका दान है आपको; वह आपका ही दूसरा हिस्सा है। उसे छाती से लगा लें।
संत फ्रांसिस के जीवन में एक उल्लेख है कि संत फ्रांसिस ने कहा कि मुझे परमात्मा का जो पहला अनुभव हुआ, वह हुआ एक कोढ़ी को जब मैंने छाती से लगाया, और जब मैंने उसके कोढ़ भरे ओंठों पर अपने ओंठ रख दिए, तब मुझे परमात्मा की पहली झलक मिली। वह मुझे चर्चों में नहीं मिली, प्रार्थनाओं में नहीं मिली।
कोढ़ी को देख कर ही भागने का मन, हटने का मन...। फ्रांसिस को भी वही हुआ था। एक कोढ़ी चला आ रहा है। शरीर के अंग गल गए हैं, गिर गए हैं; बास आती है, बेचैनी होती है, दूर हटने का मन होता है। लेकिन तभी फ्रांसिस को खयाल आया कि जीसस ने कहा है कि जो अंतिम हैं, उनमें ही जो मुझे खोज पाएगा, वही खोज पाएगा; जिनसे तुम्हारा सहज हटने का मन हो, उनके पास जाना, तो तुम मुझे मिल पाओगे। रोक लिया फ्रांसिस ने अपने को। बड़ी कष्टपूर्ण रही होगी बात। आसान है सालों तक शीर्षासन करना; आसान है पद्मासन लगा कर बैठ जाना; आसान है आंख बंद करके माला फेरते रहना। लेकिन जिसके अंग गिर गए हों, बदबू आती हो, जिसके पास कोई खड़ा होने को राजी न हो, जिसे लोग गांव में प्रवेश न करने देते हों! बड़ी क्रांति का क्षण आ गया होगा फ्रांसिस के सामने। एक तरफ सहज द्वंद्व था, चुनाव था, कि हट जाओ। और एक तरफ निर्द्वद्व एक की तलाश थी। इस एक क्षण में ही सारा रूपांतरण हो गया। फ्रांसिस ने कोढ़ी को गले लगा लिया; उसके ओंठ पर अपने ओंठ रख दिए।
216