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अस्तित्व में सब कुछ परिपूरक हैं
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रूस और अमरीका एक हो सकते हैं; तो चीन और भारत एक हो सकते हैं। कामन एनीमी आ गया। लेकिन युद्ध नए स्तर पर शुरू हो गया।
शांति है तो युद्ध होगा । इसलिए गीता का संदेश बहुत लोगों को समझ में नहीं आता कि आखिर कृष्ण इतना जो क्या दे रहे हैं कि तू लड़! बट्रेंड रसेल जैसे लोगों को तो लगेगा कि कृष्ण भी हैं। और युद्धबाज के लिए युद्ध प्रोत्साहन देते हैं। लेकिन कृष्ण की समझ वही है जो लाओत्से की है। जब शांति है तो युद्ध होगा। युद्ध से छुटकारा नहीं है। उसे स्वीकार करना पड़ेगा। और अगर पूरी तरह से स्वीकार कर लिया तो युद्ध का जो बोझ है वह विनष्ट हो जाता है। और युद्ध के मध्य से भी शांति का मार्ग खोजा जा सकता है। युद्ध के बीच से, युद्ध की आग के बीच भी कोई शांत रह सकता है और ध्यानस्थ रह सकता है। स्वीकार कर ले दोनों ! तो गीता का पूरा संदेश इस बात का ही है कि शांति और युद्ध में तू चुनाव मत कर; जो भाग्य है, जो नियति है, जो हो रहा है, उसके साथ तू जुड़ जा । और तू कोई फल की आकांक्षा मत कर, तू सिर्फ मान कि निमित्त है; और जो हो रहा है उसे हो जाने दे। तू कोई चुनाव मत
| अचुनाव का यह दृष्टिकोण तभी निर्मित हो सकता है जब हम विरोध को विरोध न समझें, परिपूरक समझें । 'उच्चस्थ जन आधार के लिए निम्नस्थ पर निर्भर है। यही कारण है कि राजा और भूमिपति अपने को अनाथ, अकेला और अयोग्य कहते हैं।'
यह थोड़ा समझने जैसा है। सम्राटों को सदा अकेलेपन का अनुभव होता है, धनियों को अकेलेपन का अनुभव होता है; ऐसा अनुभव गरीबों को नहीं होता- लोनलीनेस का ! अपने महल के शिखर में वे अकेले रह जाते हैं। अब यह मनुष्य की बड़ी विडंबना है कि पहले आदमी पूरी कोशिश करता है कि मैं सबसे ऊंचा हो जाऊं। लेकिन सबसे ऊंचे होने में वह अकेला भी हो जाता है; क्योंकि सब नीचे छूट जाते हैं; कोई संगी-साथी नहीं रह जाता। जब अकेला रह जाता है आदमी तब उसको पीड़ा शुरू होती है कि मैं बिलकुल अकेला हूं; कोई नहीं है जिससे मैं बात कर सकूं, कोई नहीं है जिससे मेरा प्रेम हो सके; कोई नहीं है जिससे मेरी मित्रता हो। और तब अकेलापन सालता है और दुख देता है। और सारे लोग इस कोशिश में लगे रहते हैं कि उस शिखर पर पहुंच जाएं जहां हमारे बराबर कोई भी न हो। तो फिर आप अकेले हो ही जाएंगे। अकेले होने की किसी की तैयारी नहीं है, और अकेले होने की सब कोशिश में लगे हैं। इसलिए धनी आदमी अपनी सफलता के चरम क्षण में पाता है कि असफल हो गया। क्योंकि संबंध ही टूट गया सब उसका अपना कोई भी न रहा; धन रह गया सिर्फ उसकी ढेरी पर धन की एवरेस्ट की ढेरी बन गई, उसके ऊपर वह अकेला रह गया। प्रसिद्धि, यश के शिखर पर आदमी पाता है कि सब व्यर्थ हो गया; क्योंकि बिलकुल अकेला हो गया । हिटलर या मुसोलिनी जैसे व्यक्तियों से अकेला व्यक्ति खोजना मुश्किल है; बिलकुल अकेले हो गए। और तब अकेलापन सालने लगा कि अब कोई संगी-साथी नहीं है !
जीवन का सारा रस संगी-साथियों के साथ जुड़ा है। हम जितना ज्यादा लोगों के साथ साझेदारी में हो सकें, हमारी भाव-दशा जितने लोगों में प्रवेश कर सके और जितने लोगों का प्रवाह जीवन का हममें आ सके, उतना ही आपको अच्छा लगेगा, सुखद, स्वस्थ मालूम पड़ेगा। जितने आप अकेले होते जाते हैं, उतनी जड़ें उखड़ती जाती हैं। भूमि से। समाज भूमि है, और हर चेतना जो आपके आस-पास है, इतनी दूर नहीं है जितना आप सोचते हैं, जुड़ी है । और जब आप बहुत दूर अपने को खींच लेते हैं और हट जाते हैं, तो अपने हाथ से ही आप अपने जीवन-स्रोत को तोड़ देते हैं।
सम्राटों को निरंतर अनुभव हुआ है कि वे बिलकुल अकेले रह गए हैं; कोई उनका नहीं है। मगर इसमें किसका कसूर है ? उनकी ही चेष्टा रही है कि इस जगह आ जाएं जहां कोई समान न रह जाए। जहां कोई समान न हो वहां मित्रता भी नहीं हो सकती, प्रेम भी नहीं हो सकता ।