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ताओ उपनिषद भाग ४
__ तो जहां-जहां द्वंद्व है वहां-वहां एक अनिवार्यता है। और तब अगर आप सुंदर को स्वीकार करते हैं तो असुंदर को अस्वीकार मत करें। क्योंकि वह सौंदर्य पैदा ही नहीं हो सकता असुंदर के बिना। अगर आप जीवन को अहोभाव मानते हैं तो मृत्यु को पीड़ा मत माने, दुख मत मानें। क्योंकि जीवन जन्मता ही मृत्यु में है। दोनों छोर पर मृत्यु है; बीच में जीवन की थोड़ी सी लहर है। वह लहर दोनों तरफ की मृत्यु के दबाव से ही उठती है। और आप मृत्यु के विरोध में हैं तो आप आधे को स्वीकार कर रहे हैं, आधे को अस्वीकार कर रहे हैं। और वे जो दो आधे दिखाई पड़ रहे हैं वे सिर्फ आपकी दृष्टि में आधे हैं, अपने आप में वे जुड़े हैं और एक हैं। जीवन ही तो बह कर मृत्यु बन जाता है; मृत्यु ही तो बह कर फिर जन्म बन जाती है। जो यहां लहर जीवन की है वही लहर मौत की बन जाती है।
यहां सब कुछ इकट्ठा है; यहां बंटा हुआ कुछ भी नहीं है। यहां राम और रावण अस्तित्व में अलग-अलग नहीं हैं। रामायण में अलग-अलग हैं, अस्तित्व में एक हैं। अस्तित्व में राम और रावण एक ही चीज के दो पहलू हैं, और दोनों एक-दूसरे के सामने अड़ कर खड़े हैं। उनमें से एक भी हट जाए तो दूसरा गिर जाएगा। दूसरा खड़ा नहीं रह पाएगा। राम को सोच ही नहीं सकते रावण के बिना। रावण को हटा लें रामकथा से और रामकथा में देखने योग्य कुछ भी न रह जाएगा। सुनने योग्य, पढ़ने योग्य कुछ भी न रह जाएगा। मजे की बात यह है कि रावण के मिटते ही राम की सारी गरिमा खो जाएगी। वह सारी गरिमा जैसे रावण से उपलब्ध हो रही है। और विपरीत भी सही है। राम को हटा लें तो रावण का कोई मूल्य नहीं रह जाता। सारा रस रावण में राम से बह रहा है। ऊपर से दिखाई पड़ते हैं वे दुश्मन; भीतर से वे गहरे मित्र हैं। अस्तित्व में जहां-जहां द्वंद्व है वहां-वहां जरा सी खोज करेंगे, जरा खोदेंगे, और भीतर मिलेगा, एक गहरी आत्मीयता बह रही है।
लाओत्से कहता है कि इस असंख्य अभिव्यक्तियों वाले जगत को वह अस्वीकार नहीं करता। लेकिन बड़े मजे का शब्द है! लाओत्से यह नहीं कहता कि वह स्वीकार करता है। वह कहता है, अस्वीकार नहीं करता। यह बहुत सोच-समझ कर कहा हुआ वक्तव्य है। वह यह नहीं कहता कि स्वीकार करता है, इतना ही कहता है कि अस्वीकार नहीं करता। अगर वह स्वीकार करता है तब तो आपको बदलने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। तब तो जीवन-क्रांति और जीवन का आरोहण सब खो जाता है।
नहीं, वह आपको अस्वीकार नहीं करता; लेकिन जब तक आप जीवन को रूपांतरित नहीं करते हैं तब तक आप अपने ही हाथों से उससे दूर बने रहेंगे। वह आपको स्वीकार करे तब तो आपको कुछ करने की जरूरत नहीं है। वह सिर्फ अस्वीकार नहीं करता। वह आपको मिटाता नहीं, वह आपको हटाता नहीं, वह आपको तोड़ता नहीं, वह आपको बदलता नहीं, वह आपसे कहता नहीं कि ऐसे हो जाओ; आप जैसे हो उसको अस्वीकार नहीं करता। यह निगेटिव है, यह नकारात्मक है बात।
लेकिन वह आपको स्वीकार भी नहीं करता। स्वीकार तो आप तभी होते हैं जब आप बदलते हैं और उसके निकट आते हैं; जब आप रूपांतरित होते हैं और उसके निकट आते हैं। और यह रूपांतरण की कीमिया यह है कि जब आप समग्र अस्तित्व को स्वीकार करने लगते हैं तब आप उसे स्वीकार होने लगते हैं। लेकिन स्वीकार पाजिटिव बात है। इसलिए उसका अस्वीकार न करना आपको अस्तित्व देता है, जीवन देता है। लेकिन जिस दिन वह आपको स्वीकार करता है उस दिन महाजीवन!
जीसस ने कहा है कि तुम जिसे जानते हो वह जीवन है, लेकिन मैं जिस तरफ तुम्हें ले जा रहा हूं वहां तुम्हें महाजीवन-लाइफ, एबनडंट लाइफ; परम जीवन या दिव्य जीवन, अमृत या मुक्ति, जो भी हम नाम देना चाहें दें।
वह हमें अस्वीकार नहीं करता तो भी हम जीते हैं। उसकी अस्वीकृति में तो हम जी ही न सकेंगे। वह अस्वीकार नहीं करता, इसलिए हम जीते हैं। लेकिन अगर हम जगत को स्वीकार कर लें तो वह हमें स्वीकार कर लेता है। और