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पैगंबन ताओ के निचले फूल है
लेकिन उनके पास जो जमात इकट्ठी हो गई, उसने अभी तक पीछा नहीं छोड़ा। आदमी को अभी भी सताए चली जा रही है। कृष्ण अनूठे हैं। शिव अनूठे हैं। लेकिन उनके पंडित-पुरोहितों का जो जाल है, वह छाती पर पत्थर की तरह बैठा हुआ है। नाम शिव का है, शोषण पंडित कर रहा है। नाम कृष्ण का है, भागवत कृष्ण की पढ़ी जा रही है। लेकिन वह जो पढ़ रहा है, वह जो पंडितों का जाल है, वह जो पुरोहित बैठे हैं, वे उसका शोषण कर रहे हैं।
. लाओत्से ठीक कहता है कि पैगंबर अंतिम ऊंचाई हैं जीवन की, लेकिन उन्हीं के साथ मूर्खता का भी जन्म होता है। उनसे नहीं होता, उनमें नहीं होता; लेकिन उनके आस-पास तो होता है। थोड़ा देर सोचें, अगर मोहम्मद पैदा न हों तो मुसलमानों ने जो भी उपद्रव किया दुनिया में वह नहीं होता। अगर जीसस न हों तो ईसाइयों ने जो भी धर्मयुद्ध किए, हत्याएं की, हजारों-लाखों लोगों को जलाया, अनेक-अनेक कारणों से, वह नहीं होता। लाओत्से का मतलब यह नहीं है कि पैगंबर इस उपद्रव की शुरुआत करते हैं। लेकिन उनसे शुरुआत होती है। यह कुछ अनिवार्य है। इससे बचा नहीं जा सकता। जीवन का एक नियम है कि विपरीत आकर्षित होते हैं।
तो महावीर हैं। महावीर परम त्यागी हैं, त्याग उनके लिए सहज है। जितने भोगी इस मुल्क में थे सब उनसे आकर्षित हो गए। अभी जैनियों को देखें, त्याग से उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह बड़े मजे की बात है कि महावीर के आस-पास सब दुकानदार क्यों इकट्ठे हो गए। महावीर कहते हैं, धन व्यर्थ है। सभी धनी उनके पास क्यों इकट्ठे हो गए! महावीर तो वस्त्र भी छोड़ दिए। लेकिन देखें, वस्त्रों की अधिकतम दूकानें जैनियों की हैं। यह कुछ समझ में नहीं पड़ता कि इसमें कुछ संबंध जरूर होगा, भीतरी कुछ नाता होगा कि जो आदमी दिगंबर हो गया, कपड़े भी छोड़ दिए।
मैं जिस गांव में रहता था वहां एक दिगंबर क्लाथ स्टोर है-नंगों की कपड़ों की दुकान! बेबूझ लगता है, लेकिन कोई भीतरी तर्क जरूर काम कर रहा है। महावीर के त्याग से भोगी प्रभावित हो गए। असल में, विपरीत आकर्षित होता है; जैसे स्त्री पुरुष से प्रभावित होती है, पुरुष स्त्री से प्रभावित होता है। विपरीत आकर्षित करते हैं। तो महावीर के त्याग को देख कर भोगियों को लगा होगा, गजब! ऐसा त्याग तो हम कभी नहीं कर सकते जन्मों-जन्मों में; यह महावीर ने तो चमत्कार कर दिया। यह चमत्कार उनको छू गया होगा; वे इकट्ठे हो गए।
इसलिए अक्सर विपरीत इकट्ठे हो जाते हैं। और वे जो विपरीत हैं, उन्हीं के हाथ में वसीयत पहुंचती है। स्वभावतः, उन्हीं के हाथ में वसीयत पहुंचती है। महावीर कर भी क्या सकते हैं? जो इकट्ठे हैं आस-पास वे ही उनके, उन्होंने जो कहा है उसके मालिक हो जाएंगे। जो इकट्ठे हैं वे ही उसकी व्याख्या करेंगे। कल वे ही मंदिर, संगठन, संप्रदाय निर्मित करेंगे। यह होगा; इससे बचने का उपाय नहीं है। लेकिन अगर इसकी सचेतना रहे, जैसा कि लाओत्से का इरादा यही है कहने में कि अगर यह हमें बोध रहे, तो इसकी पीड़ा कम हो सकती है। और अगर यह खयाल सारे जगत में परिव्याप्त हो जाए तो हम पैगंबरों को स्वीकार कर लेंगे और उनके संप्रदायों को अस्वीकार कर देंगे। यह इसका अर्थ है।
तो महावीर बिलकुल ठीक हैं, लेकिन जैनियों की कोई आवश्यकता नहीं। कृष्ण बिलकुल प्यारे हैं, लेकिन हिंदुओं का क्या लेना-देना! शिव की महिमा ठीक है, लेकिन बनारस का उपद्रव! वह नहीं चाहिए। मोहम्मद ठीक, लेकिन मक्का पर जो हो रहा है, मदीना में जो हो रहा है, वह जाल तोड़ देने जैसा है। और जिस दिन धर्म की अभिव्यक्तियां स्वीकार हो जाएंगी और उनके आस-पास निर्मित संगठन अस्वीकृत हो जाएंगे, उस दिन इस जगत में धर्म के कारण जो उपद्रव होते हैं वे नहीं होंगे। और धर्म के कारण जो औषधि मिल सकती है पीड़ित मनुष्यों को वह मिल सकेगी।
'पैगंबर ताओ के पूरे खिले फूल हैं। और उनसे ही मूर्खता की शुरुआत होती है।'
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