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पैगंबन ताओ के निवले फूल है
मोक्ष जाने के लिए गरीबों का होना बिलकुल जरूरी है। क्योंकि उन्हीं के कंधे पर रख कर पैर तो आप मोक्ष जाएंगे। मगर उनको दान भी देते रहिए, कहीं ऐसा न हो कि वे आपके कंधे पर पैर रखने के पहले ही जमीन पर गिर जाएं। इतनी ताकत उनमें रहनी चाहिए कि आप कंधे पर पैर रख सकें और वे आपको झेल सकें।
तो गरीब को जिलाए रखो, उसे मर मत जाने दो। क्योंकि उसके मरते ही वह धनपति भी मर जाएगा। उसके ही कंधे पर खड़ा है। लेकिन कंधे से मत उतरो। और उसको भी तुम्हारे जैसे ही योग्य मत हो जाने दो। क्योंकि दो हालत में धनपति मिटेगा-या तो गरीब मिट जाए या गरीब भी अमीर हो जाए। दो हालत में धनपति मिटेगा। ये दोनों हालतें मत होने दो। गरीब को उस जगह रखो जहां वह गरीब भी रहे और धनपति के प्रति श्रद्धा से भी भरा रहे। तो दान भी दो, दया भी करो। यह कर्मकांडी की व्यवस्था है।
इसलिए अगर मार्क्स ने कहा है कि धर्म गरीबों के लिए अफीम है तो एकदम गलत नहीं कहा है। कर्मकांडी धर्म के लिए मार्क्स की बात बिलकुल सही है। यह चौथी कोटि का जो धर्म है, इसके लिए मार्क्स की बात एकदम सही है कि यह गरीब को अफीम खिलाना है। न उसे भूख का पता चलता, न उसे दुख का पता चलता, वह अफीम खाए पड़ा रहता है। कर्मकांडी का दान, दया, धर्म, धर्मशालाएं, मंदिर, स्कूल, अस्पताल, सब अफीम हैं। गरीब को इस हालत में नहीं आने देता कि वह बिलकुल ही इतना असंतुष्ट हो जाए कि क्रांति कर गुजरे। उसे संतोष देता रहता है, सांत्वना देता रहता है।
अगर दान की व्यवस्था बिलकुल न हो तो क्रांति अभी हो जाए। लेकिन दान की व्यवस्था बफर बना देती है। जैसे ट्रेन में बफर होते हैं दो डिब्बों के बीच में। तो कभी कोई धक्का लगे गाड़ी को तो बफर झेल लेते हैं; डब्बों में बैठे लोगों को धक्का नहीं पहुंच पाता। बफर पी जाते हैं धक्के को। ऐसा समाज गरीब और अमीर के बीच बफर पैदा करता है कि कुछ भी उपद्रव हो तो बफर पी जाएं, अमीर तक धक्का नहीं आ पाए।
तो गरीब और अमीर के बीच में दान और दया के क्रियाकांड बफर पैदा करते हैं। और बड़ी कुशलता से। लंबे अनुभव से यह बात तय हो पाई है कि समाज को अगर ठीक से चूसना हो तो अकेला चूसना काफी नहीं है; चूसने के
आस-पास एक वातावरण होना चाहिए जहां गरीब को खुद ही लगे कि उसके हितकारी, उसके कल्याण करने वाले - लोग हैं। ये उसका शोषण कैसे कर सकते हैं?
अगर भारत जैसे मुल्क में क्रांति नहीं हो सकी कभी भी तो उसका एक मूल कारण यही है कि यहां हमने इतना बड़ा कर्मकांड पैदा किया, हमने इतने बफर पैदा किए कि दुनिया में कोई समाज इतनी कुशलता से बफर पैदा नहीं कर पाया। गरीब को लगता ही नहीं कि अमीर उसकी दुश्मन है। गरीब को लगता है कि अमीर उसका त्राता, उसका पिता, उसको दान देने वाला, उसको सम्हालने वाला, उसका नाथ, सब कुछ अमीर लगता है।
अगर हम एक सौ वर्ष पीछे लौट जाएं और भारतीय गांव की तस्वीर देखें तो गरीब यह सोच ही नहीं सकता कि यह जो अमीर है, यह उसका दुश्मन हो सकता है। यह उसका पिता है; यही तो उसका सब कुछ है। यही उसे भोजन देता, यही उसके बच्चों को शिक्षा देता, यही उसे वस्त्र देता; इस पर ही सब कुछ निर्भर है। जब कि हालत बिलकुल उलटी है। इस अमीर का सब कुछ इस गरीब पर निर्भर है। लेकिन गरीब को हजारों वर्ष से समझाया गया है कि अमीर पर सब कुछ निर्भर है। और यह समझाहट, दान, दया, करुणा, मंदिर, धर्मशाला, इनसे आई है। ये बीच के सेतु हैं।
तो कर्मकांडी मनुष्य बहुत धार्मिक दिखाई पड़ेगा, लेकिन जरा भी धार्मिक नहीं होगा।
लाओत्से कहता है, 'यह कर्मकांड हृदय की निष्ठा और ईमानदारी का विरल हो जाना है, तिरोहित हो जाना है। और वही अराजकता की शुरुआत भी है।'
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