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___ एक साधे सब मधे
होती है तो इसकी आंख ही बीमार नहीं होती, इसका पूरा शरीर ही बीमार हो जाता है। इसका आंख का अकेला इलाज. हो सकता है; आंख ठीक भी हो जाएगी। लेकिन वह इलाज लोकल हुआ, स्थानीय हुआ। पूरा व्यक्ति अछूता छूट गया। इसलिए जो बीमारी आंख से प्रकट हो रही थी वह कहीं और से प्रकट होनी शुरू हो जाएगी। तो पश्चिम में एक नया नारा है कि बीमारी का इलाज बंद करो और व्यक्ति का इलाज शुरू करो। जब तक व्यक्ति का इलाज न हो, बीमारियां ठीक नहीं हो सकती।
तो विज्ञान संकीर्ण होते-होते, होते-होते एटामिक हो जाता है, परमाणु की तरफ जाने लगता है। बहुत जानता है, लेकिन बहुत थोड़े के संबंध में। धर्म की यात्रा बिलकुल उलटी है। धर्म बहुत कम जानता है, लेकिन बहुत के संबंध में। इस फर्क को ठीक से समझ लें।
मैंने कहा, विज्ञान जानता है मोर एंड मोर एबाउट लेस एंड लेस, और धर्म जानता है लेस एंड लेस एबाउट मोर एंड मोर। और एक घड़ी ऐसी आती है कि धर्म बिलकुल नहीं जानता-और तब पूरा प्रकट हो जाता है उसके सामने। होगा ही। एक घड़ी ऐसी आएगी विज्ञान को कि वह सब कुछ जान लेगा ना-कुछ के संबंध में सामने कुछ भी नहीं रह जाएगा। अगर यात्रा ठीक से बढ़ेगी तो काटते-काटते एक वक्त आएगा कि जानकारी बहुत हो जाएगी, जानने को कुछ भी नहीं बचेगा। धर्म इससे उलटी यात्रा करता है। एक घड़ी आती है कि जानकार खो जाता है, जानना नहीं रह जाता, और जानने को सब कुछ प्रकट हो जाता है। जिस दिन यह विराट प्रकट होता है उस दिन एक ही रह जाता है। उस दिन फिर कोई भेद नहीं रह जाते, खंड नहीं रह जाते। भेद इतनी बुरी तरह गिर जाते हैं कि जानने वाला भी नहीं रह जाता उस एक को, बस एक ही रह जाता है। यह चरम घटना है, जिसे हम बुद्धत्व कहते हैं।
लाओत्से कहता है, 'प्राचीन समय में वे थे जिन्हें वह एक उपलब्ध था। इस एक की उपलब्धि के द्वारा स्वर्ग उजागर था।'
एक-एक चरण को हम ठीक से समझें। 'इस एक की उपलब्धि के द्वारा स्वर्ग उजागर था।'
स्वर्ग है प्रतीक सुख का। स्वर्ग है प्रतीक जीवन के भीतर छिपा हुआ जो अनंत सागर है आनंद का, उसका। स्वर्ग महासुख है। उस एक की उपलब्धि के द्वारा स्वर्ग उजागर था; महासुख के द्वार खुले थे। उस एक की उपलब्धि खोती चली गई, स्वर्ग के द्वार बंद होते चले गए। अब हम बहुत जानते हैं उस एक को छोड़ कर। लेकिन हमारा इतना जानना भी हमारे दुख को कम नहीं करता, बढ़ाता है। इसलिए बहुत चिंता की बात है कि आदमी का ज्ञान बढ़ता जाता है, लेकिन दुख क्यों बढ़ता जाता है! होना तो यह चाहिए कि ज्ञान बढ़ने के साथ दुख कम हो। क्योंकि लक्ष्य ही क्या है ज्ञान का अगर दुख कम न होता हो?
पिछले दो हजार वर्षों में ज्ञान रोज बढ़ता चला गया है। लेकिन जिस मात्रा में ज्ञान बढ़ता है उससे कई गुनी मात्रा में दुख बढ़ता है। दुख घना होता चला जाता है। और अब आदमी परेशान है। और ज्ञान को बढ़ाता है, ताकि दुख को कम कर सके; इस खोज में लगा रहता है कि जितनी जानकारी होगी उतना हम दुख से सुरक्षा कर लेंगे। लेकिन दुख बढ़ता जाता है।
लाओत्से कहता है, सुख का द्वार एक को जानना है; दुख का द्वार अनेक को जानना है। अनेक की जानकारी होगी, दुख बढ़ेगा; एक का बोध होगा, सुख बढ़ेगा। क्यों? क्योंकि जितनी दिशाओं में हमारा ज्ञान बंटता है उतने ही भीतर हम बंट जाते हैं। और बंटा हुआ आदमी दुखी होगा। खंडित, टूटा हुआ आदमी दुखी होगा।
___ आपको पता नहीं कि आप कितने खंडित हैं। आप दुकान पर होते हैं तो आप और ही तरह के आदमी होते हैं। अगर एकदम से आपकी प्रेयसी वहां आ जाए तो आपको बड़ी अड़चन होगी। क्योंकि प्रेयसी के साथ आप जैसे
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