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विश्व-शांति का सूत्रः सहजता व सरलता
जाए तो उसे भी देख लेता हूं; और कोई प्रशंसा कर जाए तो उसे भी देख लेता हूं। फिर मेरे बोलने की कोई भी जरूरत नहीं। फिर इस मैं को खड़ा करने की कोई आवश्यकता नहीं।
लेकिन साधक छोड़ने की कोशिश में लगा है अहंकार को, तो एक नया अहंकार खड़ा हो जाता है। अहंकार के रास्ते बहुत विचित्र हैं। लाओत्से के इस सूत्र को समझेंगे तो बहुत हलकापन आएगा। क्योंकि लाओत्से नहीं कहता कि तुम छोड़ो। क्योंकि तुम छोड़ क्या सकते हो? तुम कुछ कर ही नहीं सकते हो; करने की बात ही भ्रांति है। इधर हम संसार बनाते हैं तो भी मजा लेते हैं कि मैं संसार बसा रहा हूं, मकान बना रहा हूं, धन कमा रहा हूँ; तिजोड़ी बड़ी होती जा रही है। यह एक रस है, मैं का ही रस है; मैं कर रहा हूं। फिर एक दिन इस सबसे ऊब जाते हैं। फिर हम छोड़ते हैं। तब हम कहते हैं, मैंने धन छोड़ा। फिर हम छोड़ने का भी हिसाब रखते हैं। फिर कितना छोड़ा, उसका भी हम हिसाब रखते हैं। कितना था, उसका भी हिसाब रखते थे; फिर कितना छोड़ा, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर कितना बड़ा मकान था, उसको लात मार दी, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर कितनी सुंदर स्त्री थी, उसका त्याग कर दिया, उसका भी हिसाब रखते हैं। फिर सबका हिसाब रखते हैं, क्योंकि हमने छोड़ा। तब इकट्ठा करना हमारी संपदा थी; अब छोड़ना हमारी संपदा है। लेकिन संपदा अपनी जगह खड़ी है। तब हम इस जगत के सिक्के इकट्ठे कर रहे थे; अब हम मोक्ष के सिक्के इकट्ठे कर रहे हैं। लेकिन इकट्ठा करना जारी है। और वह मैं अकड़ा हुआ है। और उसकी मैं की अकड़ स्वभावतः ज्यादा होगी। क्योंकि तुम सब इकट्ठा कर सकते हो, लेकिन छोड़ने की हिम्मत कम लोग जुटा पाते हैं। परम अहंकारी ही छोड़ने की हिम्मत जुटा पाते हैं।
___ इसका यह मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि तुम छोड़ना मत। इसका यह भी मतलब नहीं है कि मैं कह रहा हूं कि छोड़ोगे तो पाप होगा। मैं यह कह रहा हूं कि जहां भी कर्तृत्व आ गया वहां पाप हो जाएगा। तुमने इकट्ठा किया था, वहां कर्ता था। तुमने छोड़ा, वहां भी कर्ता हो गया। कर्ता छुट जाए तो पुण्य की घटना घटती है। इसलिए क्या तुम पकड़ते हो, क्या तुम छोड़ते हो, यह महत्वपूर्ण नहीं है; उन दोनों से कौन भरता है, कौन पोषित होता है, वही महत्वपूर्ण है। स्वभाव कर रहा है। आप जैसे हैं, जो हो रहा है, वह विराट धर्म की लीला है-या परमात्मा की लीला है, अगर परमात्मा शब्द प्रीतिकर है।
लाओत्से कहता है, 'ताओ कभी कर्मरत नहीं होता, तो भी सभी कुछ उसी के द्वारा कर्मरत है। दि ताओ नेवर डज, यट श्रू इट एवरीथिंग इज़ डन।'
__ कृत्य कमजोर आदमी की धारणा है। करने का भाव ही कमजोरी है। करने के भाव से ही हम अपने को खड़ा रखते हैं। लगता है, हम कुछ कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं, कुछ कर रहे हैं। फिर यह करने की भाषा भला बदलती जाए, लेकिन यह करने का जो रस है, जो रोग है, वह जारी रहता है। इसे पहचान लेने की जरूरत है। इसे पहचानने के लिए कुछ दिशाओं से खोज करना जरूरी है।
. पहली बात तो यह, आप जनमे हैं। यह जन्म आपका कृत्य है? किसी ने आपसे पूछा कि कृपा करें और जन्में? किसी ने आपसे सलाह ली? आपके निर्णय की कोई जरूरत पड़ी?
न किसी ने पूछा, न पूछने का सवाल उठा। एक दिन आप नहीं थे और एक दिन आप हो गए। जन्म घटा है; वह कृत्य नहीं है। फिर आप बच्चे थे, सरल थे, भोले थे; वह भी कोई कृत्य नहीं था। फिर आप जवान हुए, तिरछापन आया, जीवन में वासनाएं जगी, क्रोध और कामनाएं जगीं, महत्वाकांक्षा फैली; उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है। वह भी हो रहा है। फिर आप बूढ़े हुए; वासनाएं थक गईं, क्षीण हो गईं। दौड़ कर देख लिया, कुछ पाया नहीं; विराग जन्मने लगा, वैराग्य का उदय हुआ। उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है; वह भी हो रहा है। फिर मृत्यु घटी; उसमें भी कुछ कृत्य नहीं है। जीवन, अगर गौर से देखें, तो कृत्यहीन है।
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