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श्रेष्ठ चनिन और घठिया चनिन्न
अब एक ऐसी अवस्था है मनुष्य की जहां दो ही उपाय हैं-कि वह वापस प्रकृति से जुड़ जाए, क्योंकि प्रकृति से बिना जुड़े आनंद नहीं है। विचार आनंद को जानता ही नहीं; जान भी नहीं सकता। विचार दुख का मूल है। विचार स्वयं दुख है, वेदना है। तो दो ही उपाय हैं मनुष्य के लिए। एक तो यह उपाय है कि वह गिर जाए विचार से नीचे; जहां पशु जीते हैं, वृक्ष जीते हैं, आकाश में बदलियां चलती हैं, उस लोक में गिर जाए।
. इसीलिए शराब का इतना प्रभाव है। मादक द्रव्यों की इतनी गहरी पकड़ है आदमी के ऊपर कि दुनिया के सारे धर्म चिल्लाते हैं, सारे राज्य कोशिश करते हैं, लेकिन आदमी को बेहोश होने से नहीं रोका जा सकता। यह केवल शराब की ही बात होती तो आसान था। यह शराब की ही बात नहीं है। न कानून रोक सकता है, न साधु रोक सकते हैं, क्योंकि मनुष्य की बहुत गहरी पकड़ है। और वह पकड़ यह है कि शराब के गहरे नशे में थोड़ी देर को वह आनंदित हो पाता है, दुख मिट जाता है। शराब से दुख नहीं मिटता, दुख मिटता है विचार के खो जाने से। शराब माध्यम बन जाती है। तो जहां भी आपका विचार खो जाता है वहीं आपको आनंद की झलक मिलने लगती है।
तो एक तो उपाय है कि आदमी नीचे गिर जाए। लेकिन यह उपाय बहुत कारगर नहीं है। क्योंकि जहां हम पहुंच गए हैं वहां से वस्तुतः नीचे गिरना असंभव है। जगत में पतन होता ही नहीं। यह ऐसे ही है कि एक बच्चा मैट्रिक की कक्षा में पहुंच गया; आप चाहे उसे आप पहली कक्षा में फिर से भेज दें, लेकिन पहली कक्षा में उसे भेजा नहीं जा सकता। ज्ञान से नीचे गिरना असंभव है। जो आपने जान लिया उसे आप अनजाना नहीं कर सकते; जो आपका ज्ञान बन गया उससे आप वापस नहीं लौट सकते।
इसलिए श्री अरविंद के विचार में थोड़ा सा बल है। श्री अरविंद पहले विचारक हैं भारत में जिन्होंने जोर दिया इस बात पर कि कोई भी मनुष्य एक बार मनुष्य योनि में पैदा होकर वापस पशुओं में नहीं जा सकता। इसमें सचाई है। चाहे कितना ही पाप करे! पशुवत हो जाएंगे, लेकिन पशु नहीं हो सकते। कोई उपाय नहीं है नीचे गिरने का। क्योंकि जो जान लिया है उसे अनजाना कैसे किया जाए? जो चेतन हो गया, वह अचेतन नहीं हो सकता। क्षण भर को हम भुलावा पैदा कर सकते हैं। शराब भुलावा पैदा करती है आपकी स्थिति नहीं बदलती।
एक ही उपाय है-दूसरा-वह यह है कि हम विचार के पार चले जाएं। विचार के नीचे चले जाएं तो भी विचार से मुक्ति हो जाती है; उसी के साथ दुख से मुक्ति हो जाती है। बेहोशी में कोई दुख नहीं है। और या फिर इतने परम होश से भर जाएं, विचार के पार चले जाएं, इतने चेतन हो जाएं कि चेतना तो हो, विचार न रह जाए; होश तो हो, लेकिन विचारणा खो जाए; आकाश रह जाए चेतना का, बादल विचार के न रह जाएं। इस अतिक्रमण में, ध्यान में, समाधि में, फिर पुनः हम प्रकृति के साथ एक हो जाते हैं।
तो एक तो असाधु का ढंग है प्रकृति के साथ एक होने काः शराब, वासना, कुछ भी; खोने के उपाय, विस्मरण के उपाय। वह असाधु का ढंग है समाधि को पाने के लिए। सफल उसमें वह नहीं होता। एक साधु का ढंग है : ध्यान, उस अवस्था में आ जाना जहां विचार खो जाते हैं। नीचे उतर कर...अगर टाल्सटाय को लगा कि सर्प आनंद में है, तो यह भी टाल्सटाय को लग रहा है, सर्प को नहीं। सर्प को यह भी नहीं लग सकता कि टाल्सटाय दुख में है, और न सर्प को यह लग सकता है कि वह आनंद में है। यह भी टाल्सटाय की चिंतना है। सर्प का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। सर्प सिर्फ होश में ही नहीं है। जो भी हो रहा है, हो रहा है। सर्प उसमें बह रहा है। रत्ती मात्र भी फासला नहीं है जहां वह विचार कर सके। न उसे दुख का पता है, और न उसे आनंद का पता है। वह हमें आनंद में प्रतीत होता है; उसे कुछ पता नहीं है।
लेकिन बुद्ध को आनंद का पता है। तो बुद्ध सर्प जैसे हैं एक अर्थ में और एक अर्थ में हम जैसे हैं। उन्हें पता है आनंद का, जैसे हमें पता है दुख का। इस अर्थ में वे मनुष्य जैसे हैं। और इस अर्थ में वे सर्प जैसे हैं कि वे आनंद
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