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ताओ उपनिषद भाग ४
ताओ पृथ्वी और स्वर्ग को निकट लाने की चेष्टा है। न तो रमण ताओ के मार्ग से चल रहे थे और न रामकृष्ण। रामकृष्ण और रमण ताओ के विपरीत मार्ग से चल रहे थे। वह भी मार्ग है; वह मार्ग है पृथ्वी और स्वर्ग को दूर ले जाने का। शरीर और आत्मा अलग है, इस भाव से रमण और रामकृष्ण चल रहे थे। शरीर को छोड़ देना है, और छोड़ते जाना है; शरीर और आत्मा के बीच विस्तार को बढ़ाना है, जगह को बढ़ाना है; और एक ऐसी घड़ी लाना है जहां सिर्फ आत्मा ही का अनुभव रह जाए और शरीर बिलकुल भूल जाए। तो स्वभावतः, रमण और रामकृष्ण के शरीर और आत्मा के बीच का सारा संबंध टूट गया था। पृथ्वी और स्वर्ग दूर हो गए थे, जितने दूर हो सकते हैं। इसलिए मैं कहता हूं, उनको कैंसर से ही मरना चाहिए था। वही उचित है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि वे ज्ञानी नहीं थे। और इसका यह भी अर्थ नहीं है कि वे परम निर्वाण को उपलब्ध नहीं हो गए। लेकिन वह मार्ग द्वंद्व को उसकी अति पर पहुंचा देने का है।
लाओत्से का मार्ग द्वंद्व को उसकी शून्य स्थिति तक पहुंचा देने का है। अतियों से छलांग लगती है। या तो शरीर और आत्मा बिलकुल अलग हो जाएं कि शरीर का पता ही न चले तो भी छलांग लग जाती है। और या शरीर
और आत्मा इतने एक हो जाएं कि शरीर का पता न चले तो भी छलांग लग जाती है। दोनों हालत में शरीर का पता । नहीं चलता। आप बीच की हालत में हैं। शरीर का पता भी चलता है; दूरी भी है, और एकता भी है। फासला भी लगता है किसी क्षण में कि मैं शरीर नहीं है, और व्यवहार में आप, मैं शरीर हूं, इस भांति जीते हैं। आप मध्य में खड़े हैं। इस मध्य के दोनों तरफ मार्ग है। एक मार्ग है कि आप शरीर को छोड़ते ही चले जाएं; फासला अनंत हो जाए। फासला इतना हो जाए कि आपका और शरीर के बीच कोई संबंध, कोई सेतु न रह जाए, सब तंतु टूट जाएं। और एक अति पर, एक एक्सट्रीम पर आ गए आप; यहां से छलांग लग जाएगी। आप सौ डिग्री उबलती हुई अवस्था में आ गए; तनाव आखिरी हो गया। जब तनाव आखिरी होता है तो टूट जाता है। सौ डिग्री पानी उबल रहा है; अब आप भाप बन जाएंगे।
लाओत्से का मार्ग बिलकुल विपरीत है। वह कहता है कि और करीब आ जाओ, और करीब आ जाओ। मध्य में खड़े हो; थोड़ी सी दूरी है, वह भी मिटा दो। पृथ्वी और स्वर्ग को बिलकुल करीब ले आओ; इतने करीब, इतने करीब कि तुम एक हो जाओ। शून्य डिग्री पर आ जाओ, जहां से छलांग लग जाती है और पानी बर्फ हो जाता है। एक हो जाओ। इतना भी पता न रहे कि शरीर है।
ये दो मार्ग हैं। शरीर से दूरी पर कैंसर पैदा हो सकता है। कुछ अनहोना नहीं है। अगर लाओत्से से पूछो तो वे कहेंगे कि रामकृष्ण और रमण के लिए कैंसर होना ही चाहिए था। यह बिलकुल ठीक है। लाओत्से के मानने वाले को कैंसर नहीं हो सकता। क्योंकि दूरी कम करने का सवाल है। दोनों स्थितियों से परम अवस्था उपलब्ध हो जाती है; दोनों छोरों से छलांग लग जाती है।
रामकृष्ण और रमण का मार्ग थोड़ा अप्राकृतिक है। लाओत्से का मार्ग बिलकुल प्राकृतिक है। लाओत्से कहता है, निसर्ग के साथ एक हो जाओ; तोड़ो ही मत अपने को। इसलिए लाओत्से के मार्ग में शुरू से ही शांति आनी शुरू हो जाएगी, और शुरू से ही तथाता घटने लगेगी, और शुरू से ही मौन आने लगेगा; क्योंकि संघर्ष शुरू से ही छुट रहा है। रमण और रामकृष्ण के मार्ग पर अंतिम क्षण में शांति घटित होगी। शुरू में तो अशांति बढ़ेगी, तनाव बढ़ेगा, परेशानी बढ़ेगी, आध्यात्मिक पीड़ा बढ़ेगी। क्योंकि लड़ाई होगी, द्वंद्व होगा, संघर्ष होगा, तपश्चर्या होगी।
तपश्चर्या का अर्थ ही यह है कि शरीर से अपने को हटाना। जहां-जहां जोड़ है वहां-वहां तोड़ना। पीड़ा स्वाभाविक है। बहुत संताप होगा। इस संताप की अंतिम घड़ी में ही अचानक सब बदल जाएगा; संताप विलीन हो जाएगा। जब सब संबंध टूट जाएंगे तो दुख सब विलीन हो जाएगा।
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