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ताओ का स्वाद सादा है
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और तुम्हारे जीवन का पूरा अर्थ है । और तुम्हारे जीवन में अकारण तुम जो दुख पैदा कर लेते हो, वे नहीं होंगे, और सहज ही जो सुख प्रवाहित होना चाहिए वह प्रवाहित हो जाएगा।
आदमी को छोड़ कर कोई भी स्वभाव से च्युत नहीं होता । सारी प्रकृति स्वभाव में जीती है। लेकिन उसका स्वभाव में जीना एक मजबूरी है, क्योंकि प्रकृति के पास इतना बोध नहीं है कि वह स्वभाव के बाहर जा सके। सिर्फ आदमी स्वभाव के बाहर जा सकता है। लेकिन यह एक बड़ी संभावना भी है, एक बड़ा खतरा भी। बड़ा खतरा है कि हम स्वभाव के बाहर जाकर बहुत दुख पाते हैं; लेकिन एक बड़ी संभावना भी कि हम वापस लौट सकते हैं।
निश्चित ही, हम जितना दुख पाते हैं उतना कोई पशु नहीं पाता। हम दुख के बिलकुल आखिरी नरक तक जा सकते हैं; कोई पशु नहीं जा सकता। लेकिन हम लौट भी सकते हैं; और लौट कर हम जो आनंद पा सकते हैं वह भी कोई पशु नहीं पा सकता। पशु सुख पा सकते हैं, लेकिन उनका सुख का बोध भी नहीं है। वे दुख नहीं पा सकते, क्योंकि वे स्वभाव से विपरीत नहीं जा सकते। हम स्वभाव से विपरीत जाकर दुख की आखिरी पराकाष्ठा पा सकते हैं, और वापस लौट कर आनंद की परम अनुभूति भी पा सकते हैं। ताओ तो सिर्फ नियम को स्पष्ट कर देता है । वह यह भी नहीं कहता कि ऐसा करो ही। वह इतना ही कहता है : ऐसा है ।
बुद्ध की वाणी में अक्सर ऐसे वचन हैं। बुद्ध से कोई पूछता है कि हम क्या करें ? तो बुद्ध नहीं कहते कि क्या करो; बुद्ध कहते हैं, मैं तो इतना ही बता देता हूं कि ऐसा करने से ऐसा होगा और ऐसा करने से ऐसा होगा; मैं यह नहीं कहता कि तुम क्या करो। अगर तुम वासना में हो तो दुख होगा; अगर तुम निर्वासना में हो तो सुख होगा । मैं नहीं कहता कि तुम निर्वासना करो या वासना करो; मैं तो सिर्फ नियम कहता हूं। बुद्ध ने भी इसलिए परमात्मा की बात नहीं की; स्वर्ग-नरक की बात नहीं की; सिर्फ धर्म की बात की कि मैं सिर्फ धर्म कहता हूं कि ऐसा ऐसा कारण मौजूद हो जाए तो दुख होता है; ऐसा ऐसा कारण मौजूद हो जाए तो सुख होता है। अब तुम जानो। मैं बीमारी कहता हूं, इलाज कहता हूं। फिर तुम्हें बीमार रहना है तो तुम बीमार रहो; और तुम्हें इलाज करना है तो तुम इलाज करो । न तो मैं निंदा करता हूं कि तुम बीमार रहो तो तुम्हारी निंदा। वह तुम्हारी स्वतंत्रता है । न मैं प्रशंसा करता हूं कि तुम स्वस्थ हो जाओ तो तुम्हारा कोई समादर हो। वह भी तुम्हारी स्वतंत्रता ।
ताओ भी कोई किसी तरह के वायदे नहीं करता है।
'ताओ का स्वाद बिलकुल सादा है। देखें, और यह अदृश्य है। सुनें, और यह अश्राव्य है । पर प्रयोग करने पर इसकी आपूर्ति कभी चुकती नहीं।'
स्वाद है सादा, इतना सादा कि कहना चाहिए स्वाद है ही नहीं । सादे का अर्थ ही यह होता है कि स्वाद का पता न चले। जब तक पता चलता है स्वाद का तब तक उसमें कुछ न कुछ गैर-सादगी है। क्योंकि चोट का ही पता चल है, उत्तेजना का पता चलता है। इसलिए जिनको स्वाद लेना है वे सब तरह की उत्तेजना पैदा करते हैं; भोजन में मिर्च डालेंगे, कुछ करेंगे जिससे उत्तेजना पैदा हो। उत्तेजना हो तो स्वाद का पता चलता उत्तेजना न हो तो स्वाद का कोई
पता नहीं चलता। अगर स्वाद बिलकुल सादा है तो उसका पता ही नहीं चलेगा।
'देखें, और ताओ अदृश्य है।'
आंखों से उसे देख न पाएंगे; कहीं भी दिखाई न पड़ेगा। और सब कुछ दिखाई पड़ जाएगा, सिर्फ धर्म दिखाई नहीं पड़ेगा। क्योंकि वह सबके भीतर का छिपा हुआ नियम है। सब उसी से चलता है, लेकिन वह अप्रकट । ठीक वैसे ही जैसे वृक्ष दिखाई पड़ता है और जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं । मेरा हाथ दिखाई पड़ता है, मेरी आंखें दिखाई पड़ती हैं; लेकिन मैं दिखाई नहीं पड़ता । वह जितना मूल है उतना ही गहन में छिपा होता है, और जितना अनिवार्य है उतना ही ऊपर नहीं होता। सभी महत्वपूर्ण चीजें गहन अंधकार में छिपी होती हैं। और जीवन के सब रहस्य दबे होते