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ताओ उपनिषद भाग ४
कहते हैं, चुपचाप अंधेरे में, जब कोई भी न जाने, तुम कर लेना। उसे भीतर गहरे में डाल देना; वह कोई बाहर उछालने की बात नहीं है। उससे दूसरे को कोई लेना-देना नहीं है; तुम्हारी अपनी बात है।
लेकिन हम, जो व्यर्थ है उसे भीतर डालते हैं; कचरे को भीतर इकट्ठा करते हैं। जो सार्थक है, जो भीतर होता तो शायद जड़ें पकड़ लेता, बीज फूटता, भूमि में गहरा चला जाता, गर्भ निर्मित हो जाता जिसके आस-पास, उसे हम दिखाते फिरते हैं। यह मजे की बात है! अगर आपको क्रोध आता है तो आप उसको भीतर दबाते हैं। और विनम्रता ऊपर दिखाते हैं। स्वभावतः, जो आप दबाते हैं, वही आप हो जाते हैं। क्रोध है तो उसे भीतर दबाते हैं। अच्छा भी नहीं मालूम पड़ता क्रोध को प्रकट करना; कोई क्या कहेगा? लोग क्या कहेंगे कि आप जैसा संत पुरुष, और क्रोध कर रहा है? तो आप मुस्कुराए चले जाते हैं; क्रोध को भीतर सरकाए चले जाते हैं। लाओत्से जो कहता है कि मछली को गहरे पानी में रहने देना चाहिए; आप भी मछली को गहरे पानी में रखते हैं, लेकिन सिर्फ सड़ी हुई मछलियों को, मरी मछलियों को, मुर्दा मछलियों को, जिनको आप बाहर ही फेंक देते तो बेहतर था।
और जब आप किसी पर क्रोध रोकते हैं तो इसलिए नहीं कि क्रोध बुरा है, बल्कि क्रोध से प्रतिष्ठा जाती है। इसलिए जहां आपके क्रोध से प्रतिष्ठा नहीं जाती वहां आप बराबर प्रकट करते हैं। अगर आपका मालिक, दफ्तर में ।
आपका बॉस क्रोध करता है तो वहां आप मुस्कुराते रहते हैं खड़े होकर। आपके पास पूंछ होती तो आप हिलाते। बिलकुल मुस्कुराते हैं। लेकिन घर जाकर आप अपनी पत्नी पर टूट सकते हैं; वहां कोई डर नहीं है प्रतिष्ठा का। और पत्नी की आंख में किसकी प्रतिष्ठा होती है? भय का कारण भी क्या है? कोई प्रतिष्ठा वहां है ही नहीं पहले से। कुछ गंवाने का सवाल भी नहीं है। छोटे, घर में जाकर, बच्चे पर टूट पड़ते हैं। कोई भी बहाना खोज लेते हैं।
वह क्रोध तो निकलेगा ही; वह कहीं न कहीं निकलेगा। क्योंकि क्षुद्र को भीतर रखा नहीं जा सकता। उसके लिए कोई जगह नहीं है वहां। वहां केवल विराट को ही रखा जा सकता है। क्षुद्र तो बाहर आएगा। क्षुद्र बाहर के लिए है। और अच्छा ही है कि आप सफल नहीं हो पाते भीतर रखने में, नहीं तो वह नासूर बन जाएगा। और जो रखने में सफल हो जाते हैं उनके भीतर नासूर हो जाता है। वे फिर गहरे रोग से भीतर घिर जाते हैं। उनके पास हृदय नहीं होता फिर, फफोले ही होते हैं भीतर। और वे उन्हीं के साथ जीते हैं, उन्हीं से धड़कते हैं, उन्हीं से श्वास लेते हैं। उनकी जिंदगी एक महारोग हो जाती है। लेकिन श्रेष्ठ को हम दिखाते फिरते हैं, निकृष्ट को दबाते फिरते हैं।
श्रेष्ठ को दबाएं। जितना श्रेष्ठ बहुमूल्य हीरा हो उसको उतने भीतर रख दें; उसका पता भी न चले किसी को। वह बड़ा होगा वहां, वहां उसे गर्भ मिल जाएगा, वह फैलेगा और आपकी पूरी आत्मा पर प्रकाश बन जाएगा।
लाओत्से कहता है, 'मछली को गहरे पानी में ही रहने देना चाहिए। राज्य के तेज हथियारों को वहां रखना चाहिए जहां उन्हें कोई देख न पाए।'
लाओत्से राज्य के पक्ष में नहीं है। न सेनाओं के पक्ष में है, न हिंसा के पक्ष में है, न युद्ध के पक्ष में है। लाओत्से मानता है कि सब युद्ध, सब सेनाएं, सब राज्य मनुष्य-जीवन की विकृतियां हैं। तो लाओत्से कहता है कि राज्य को, समाज को, वह जो भी खतरनाक है-शस्त्र हैं, अस्त्र हैं उन्हें ऐसी जगह हटा देना चाहिए जहां उन्हें कोई पा भी न सके। यह थोड़ा समझने जैसी बात है कि आदमी की विकृति उतनी नहीं हुई है जितना आदमी के पास विकृति को उपयोग में लाने के साधन बढ़ गए हैं। अगर हम आदमी की तरफ देखें तो आज से दस हजार साल पहले भी आदमी ठीक ऐसा था जैसे आप हैं। आप में और दस हजार साल पुराने आदमी में कोई फर्क नहीं है। फर्क सिर्फ एक है कि अगर उस झगड़े में आ जाता वह आदमी और क्रोध में आ जाता तो शायद नाखून से आपके शरीर को नोंच लेता, और आपके पास एटम बम है। अगर आप क्रोध में आ जाएं तो नाखून से नहीं नोचेंगे आप शायद सारी पृथ्वी को नष्ट कर देने के लिए तैयार हो जाएंगे।
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