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ताओ उपनिषद भाग ४
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जमीन, मकान, सब बेच दिया। क्योंकि सूफी आ रहा था, उसके साथ सौ फकीर आ रहे थे, और उसके भक्त ने सब बेच कर परे गांव को भोजन दे दिया, भोज कर लिया। सब फूंक दिया जो उसके पास था। उसका गुरु आ रहा था।
जब गुरु को पता लगा तो शिष्य बड़ी बेचैनी में पड़े। शिष्यों ने कहा, अब क्या होगा? हम तो उपवासे हैं। गुरु का उपवास है; उपवास टूट सकता नहीं। चाहे जान रहे कि जाए, उपवास नहीं टूट सकता। ये जटिल आदमी के लक्षण हैं कि जान रहे कि जाए: ये कोई सरल आदमी के लक्षण नहीं हैं। गुरु सुनता रहा, वह कुछ बोला नहीं। लेकिन जब पहुंचा तो वह खाने के लिए बैठ गया; और जब गुरु बैठ गया तो शिष्यों को मजबूरी में बैठना पड़ा। लेकिन उन्होंने बड़े दुख में खाया, बड़े परेशान, पसीना-पसीना, आत्म-ग्लानि, पाप-कि यह क्या हो रहा है। गुरु भूल गया या क्या हुआ? उपवास है एक महीने का, और ये छह दिन में ही टूट गया।
जब सब विदा हो गए, भोज समाप्त हो गया, रात अकेले शिष्य और गुरु रह गए, तो शिष्यों ने कहा कि यह हमारी समझ के बाहर है। यह तो बड़ी भारी दुर्घटना है कि हमने उपवास किया महीने भर का और छह दिन में टूट गया! गुरु ने कहा, घबड़ाने की क्या बात है? आज से हम फिर शुरू करते हैं; एक महीना चलेगा। लेकिन उस गरीब आदमी ने सब कुछ फूंक डाला; उससे यह कहना कि हम उपवासे हैं-अकारण जटिलता पैदा होती, उसे दुख होता। इसकी क्या जरूरत है? इसकी बात ही क्यों उठानी? फायदा ही हुआ हमको, एक महीने छह दिन का उपवास का फायदा हुआ। कल से हम फिर उपवास करेंगे, और एक महीना उपवास चलेगा।
यह सरल आदमी है। वे शिष्य सरल आदमी नहीं हैं। सरलता गणित नहीं बिठाती। सरलता सहज स्पांटेनियस स्फुरणा है। और जो घटनाएं घटें, उनके साथ बिना भविष्य का गणित बिठाए सहज जो संवाद है, सहज जो प्रत्युत्तर है, वही।
लाओत्से कहता है, 'शक्ति पर भद्रता की विजय होती है।'
वह भद्रता-हृदय की भद्रता। वहां कोई मन बैठ कर सोच नहीं रहा है कि भद्र होने से शक्ति पर विजय मिलेगी। अगर आपने इसको गणित का नियम बनाया कि भद्र होने से शक्ति पर विजय मिलेगी तो आपको कभी विजय नहीं मिलेगी। और तब आप कहेंगे कि यह सूत्र गलत था। क्योंकि शक्ति पर विजय पाने के लिए भद्रता कोई उपाय नहीं है। भद्र विजय पा लेता है, यह परिणाम है।
____ मैं एक विद्यालय में गया-धार्मिक विद्यालय। वहां एक मुनि विराजमान थे। उन मुनि के पीछे एक तख्ती पर एक वचन लिखा हुआ था। वचन लिखा हुआ था कि विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है। तो मैंने उनसे पूछा कि यह वचन यहां किसलिए लगा रखा है? इसीलिए न कि जिनको भी पूजा चाहनी हो वे विद्वान हो जाएं। क्योंकि विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है। राजा तो अपने देश में ही पुजता है, लेकिन विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है। क्या मतलब क्या है इसका? अगर पूजा का भाव जगाना है कि मेरी पूजा होगी सब जगह, इसलिए विद्वान हो जाऊं, तो आप विद्वान कैसे हो पाएंगे? या फिर वह विद्वत्ता कचरा होगी। ज्ञान तो नहीं हो सकती; पांडित्य हो सकता है। लेकिन उस पांडित्य के पीछे अहंकार ही खड़ा होगा, और उस पांडित्य का कुल उपयोग आभूषण का होगा कि अहंकार के लिए आभूषण बन जाए।
हम प्रत्येक चीज में कार्य-कारण का संबंध बना लेते हैं; उन चीजों में भी जहां कार्य-कारण का संबंध नहीं होता। इसे हम थोड़ा समझें, क्योंकि हमारे पूरे जीवन में यह छिपा हुआ है।
मैं किसी को कहता हूं कि आओ, इस खेल को खेलो; इस खेल के खेलने से बड़ा आनंद मिलता है। आप आनंद पाने के लिए खेलने आ गए। आपने सोचा कि आनंद मिलता है तो चलो, आनंद तो चाहिए, इसलिए खेलें। तो आप खेलेंगे तो नहीं; आप पूरे वक्त सोचेंगे कि अभी तक आनंद नहीं मिला! अभी तक आनंद नहीं मिला! अब आनंद कब मिलेगा? और यह हाथ-पैर चलाने से, फुटबाल को यहां से वहां फेंकने से, या वालीबाल को यहां से
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