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ताओ उपनिषद भाग ४
प्रार्थना कर ली। वह दूसरा हिस्सा भी प्रकट होगा। वह भी आज नहीं कल बाहर आएगा अस्तित्व के। तब आप विषाद से भर जाएंगे। क्योंकि आपने चाहा था सुख और मिला दुख। आपने चाहा था जीवन, बनाना चाहा था जीवन को एक सुंदर काव्य, एक गीत; लेकिन अंत में मृत्यु सब संगीत तोड़ देती है, सब बिखर जाता है सौंदर्य, सब कुरूप हो जाता है। और आखिर में चिता ही हाथ लगती है। वे सब फूल जो हमने जीवन के सपनों में देखे थे, वे सब स्वप्नवत तिरोहित हो जाते हैं; आखिर हाथ में राख लगती है।
__ लाओत्से कहता है, जीवन की लय को अगर हम समझ लें कि वह विपरीत से बनी है, जहां भी एक है उससे विपरीत उसके पीछे छिपा है, उसके बिना वह हो ही नहीं सकता, तो हमारा चुनाव गिर जाए। फिर चुनाव का क्या अर्थ है? अगर सुख को चुनने में दुख उपलब्ध होने वाला है तो सुख को चुनने का अर्थ ही क्या रहा? तब एक दूसरी घटना घटती है : जो चुनाव नहीं करता वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
सुख और दुख का द्वंद्व है; वे जीवन के हिस्से हैं। आनंद जीवन का हिस्सा नहीं है। और आनंद के विपरीत कुछ भी नहीं है। आनंद उस घड़ी का नाम है जब हम द्वंद्व में से कुछ भी नहीं चुनते। तब जीवन की लय समाप्त हो जाती है; जीवन की लय शून्य हो जाती है। और जहां जीवन की लय शून्य हो जाती है, जहां जीवन की धुन बंद हो जाती है, वहीं मोक्ष के स्वर, शून्य स्वर का अनुभव होता है।
तो पहले तो यह समझ लें कि यह द्वंद्व सब तरफ से घेरे हुए है। हमारा मन निरंतर कहेगा कि नहीं, ऐसा नहीं है। जब हम प्रेम करते हैं तब हम कहां घृणा करते हैं? लेकिन कभी आपने खयाल किया कि जिसको आपने प्रेम नहीं किया उसको आप घृणा नहीं कर सकते हैं। या कि कर सकते हैं? जिससे आपका प्रेम नहीं उससे आप घृणा नहीं कर सकते। तो घृणा के लिए प्रेम पहला कदम है। और जिससे आपकी मित्रता न रही हो उससे शत्रुता कैसे घटित हो सकती है? तो मित्रता शत्रुता की पहली व्यवस्था है। वहां से हम यात्रा पर निकलते हैं।
सभी मित्रताएं शत्रुताओं में बदल जाती हैं। चाहे आप समझें और न समझें, चाहे आप पहचानें और न पहचानें, चाहे आप झुठलाए चले जाएं, चाहे आप अपने को भुलाए चले जाएं, लेकिन सभी मित्रताएं शत्रुताओं में बदल जाती हैं। इसीलिए तो मित्रता का इतना सम्मान है, लेकिन वह फूल कहीं मिलता नहीं। इतना सम्मान इसलिए है कि वह फूल आकाश का फूल है; वह पृथ्वी पर खिलता नहीं। सभी प्रेम घृणाओं में बदल जाते हैं। फिर हम अपने का छिपा सकते हैं इस तथ्य की जानकारी से कि प्रेम घृणा बन गया। हम हजार तरह के रेशनलाइजेशन, बुद्धियुक्त तर्क खोज सकते हैं, लेकिन इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि सभी प्रेम घृणा बन जाते हैं। इसीलिए तो प्रेम की इतनी प्रशंसा है। लेकिन वह प्रेम का फूल भी इस पृथ्वी पर खिलता नहीं।
जहां द्वंद्व है, और जहां जीवन होता ही द्वंद्व में है, वहां जो भी हम करेंगे, उसका विपरीत भी साथ में जुड़ गया। लेकिन एक निर्दूद्व जगत भी है। लेकिन वहां जीवन का सब स्वर शांत हो जाता है; वहां जीवन की कोई धुन नहीं रह जाती। फिर वहां द्वंद्व भी नहीं है। इस क्षण को मुक्ति का क्षण कहें, मोक्ष का क्षण कहें या परमात्म-अनुभव का क्षण कहें।
लाओत्से के सूत्र में प्रवेश करने के पहले यह खयाल में रख लें। लाओत्से के कहने के ढंग अपने हैं। वह बहुत तरकीब से किसी बात को कहता है।
इस सूत्र में उसने कहा है, 'सत्ता से जिसे गिराना है, पहले उसे फैलाव देना पड़ता है।'
जिसे गिराना हो, पहले उसे चढ़ाना होगा। नहीं तो गिराइएगा कैसे? पहले सहारा देना होगा कि ऊंचे शिखर पर पहुंच जाए; तभी गिराया जा सकता है खाइयों में। तो लाओत्से कहता है कि अगर गिरना न हो तो चढ़ने से सावधान रहना। लोग तो चढ़ाएंगे, क्योंकि वे गिराना चाहेंगे। वे तो तुम्हें सहारा देंगे कि बढ़ो। और जब वे चढ़ा रहे हैं
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