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शक्ति पर भद्रता की विजय होती है
डेल कार्नेगी की एक किताब है : हाउ टु विन फ्रेंड्स एंड इनफ्लुएंस पीपुल। तो उसमें वह कहता है कि विनम्र होना चाहिए। जितने आप विनम्र होंगे उतना ही लोगों को जीत सकते हैं।
निश्चित ही, लाओत्से और डेल कार्नेगी में अगर बातचीत हो तो लाओत्से की बात डेल कार्नेगी को बिलकुल समझ में नहीं आएगी। क्योंकि वह कहता है, विनम्रता का मतलब ही यह है, फायदा ही यह है कि उससे आप दूसरे को जीत लेते हैं। क्यों जीत लेते हैं? क्योंकि उसके अहंकार को आप फुसलाते हैं। वह एक तरह की खुशामद है। जब आप दूसरे आदमी के सामने विनम्र होकर झुकते हैं तो आप उसके अहंकार को बढ़ावा देते हैं। और वह बिलकुल प्रसन्न होता है। वह कहता है, आप कितने विनम्र आदमी हैं। लेकिन उसे पता नहीं कि उसको यह विनम्रता पता क्यों चल रही है? क्योंकि उसका अहंकार आगे बढ़ाया जा रहा है-कोई झुक गया; कितना विनम्र आदमी है! आपको यह विनम्रता इतनी प्रीतिकर क्यों लग रही है? प्रीतिकर इसलिए लग रही है कि आपका अहंकार तप्त हो रहा है। और कोई आदमी झुका नहीं और अकड़ा खड़ा रहा। आपको यह अहंकार इतना कष्ट क्यों दे रहा है? इस आदमी का अहंकार कष्ट नहीं दे रहा; आपके अहंकार को गड़ रहा है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था में जो होशियार हैं, कुशल हैं, चालाक हैं, वे विनम्रता का उपयोग करते हैं। झुकेंगे, विनम्र होंगे; सब भांति आपके अहंकार को फुसलावा देंगे। लेकिन भीतर वे गहन अहंकारी हैं, और आपके विजय की चेष्टा कर रहे हैं।
डेल कार्नेगी जिस भाषा में विनम्रता का उपयोग करता है वह तो अहंकार का उपाय है। लाओत्से का जो अर्थ है वहां न तो अहंकार है आपका और न आपकी तथाकथित विनम्रता है। डेल कार्नेगी वाली विनम्रता वहां नहीं है। वहां दूसरे को जीतने का, या दूसरे से हारने का, दोनों ही सवाल नहीं हैं। वहां दूसरा है ही नहीं। आदमी सिर्फ स्वयं है। वह न आपको जीतने की फिक्र कर रहा है और न आपसे हारने के लिए डरा हुआ है। वह आपकी चिंता नहीं कर रहा है। वह जैसा है वैसा है। वह सरल है।
यह जो विनम्रता हमारी है, यह बड़ी जटिल है। अगर यहां आपको लोगों को जीतना है तो विनम्र होना पड़ेगा। यह तो बड़े मजे की बात हुई। यहां अगर आपको अपने अहंकार को आगे ले जाना है तो विनम्र होना पड़ेगा। आप जितने विनम्र होंगे उतने ही अहंकार को आप सफल हो सकते हैं; उतना ही अहंकार आप अपना मजबूत कर सकते हैं। आदमी सब तरह से अपने अहंकार को तृप्त करने की कोशिश करता है। वह विनम्रता से भी करता है।
और तब आपको हर गांव में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो विनम्रता की मूर्ति हैं। लेकिन अगर आप उनका थोड़ा सा परीक्षण करें तो पाएंगे कि भीतर उनके गहन अहंकार की लपटें जल रही हैं। और यह विनम्रता की मूर्ति जो वे बने हुए हैं, उसी अहंकार के लिए बने हुए हैं। और जब सारा गांव उन्हें कहता है कि धन्य हैं आप, कि आप जैसा विनम्र आदमी नहीं, तब वे फूले नहीं समाते। वह कौन फूलता है भीतर? जो सुनता है कि आप जैसा कोई विनम्र नहीं, आप परम विनम्र हैं। आप जैसा कोई भद्र नहीं, सरल नहीं, आप जैसा कोई साधु नहीं। तो कौन फूलता है भीतर? वह जो फूल रहा है, वह जो प्रसन्न हो रहा है, वही अहंकार है।
और अगर यह आपको समझ में आ जाए तो फिर उचित यही है कि अगर आपको अपनी अकड़ पूरी करनी हो तो विनम्र होकर पूरी करें। क्योंकि विनम्र होकर ही पूरी करना आसान होगी। आप अकड़े तो दूसरे लोग आपकी अकड़ को तोड़ने की कोशिश में लग जाते हैं। आप अकड़े ही नहीं तो कोई तोड़ने की कोशिश ही नहीं करता; आपको सब सम्हालते हैं। इस गहरी चालाकी को अगर आप समझ लें तो मन के धोखे से बच सकते हैं।
लाओत्से की भद्रता, विनम्रता अहंकार और विनम्रता दोनों का अभाव है। हमारी विनम्रता अहंकार की ही एक व्यवस्था है। हमारा अहंकार भी विनम्रता का ही एक जोड़ और उसकी ही एक डिग्री, उसकी ही एक मात्रा है। जहां दोनों नहीं हैं, वहां भद्र व्यक्ति का जन्म होता है।
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