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ताओ उपनिषद भाग ४
लोग राजी होते जाएंगे, समझते जाएंगे, जैसे-जैसे लोग उसके स्वभाव, उसके आनंद, उसकी शांति से परिचित होने लगेंगे, वैसे-वैसे विरोध गिर जाएगा। और इस विरोध के गिरने के बाद अनुगमन पैदा होता है; और तब लोग उसके पीछे चलने लगेंगे।
अभी आप लोगों को पीछे चलाने की कोशिश करते हैं; कोई आपके पीछे चलता नहीं। आपको भला खयाल हो कि लोग आपके पीछे चल रहे हैं, उनको यह खयाल होता है कि आप उनके पीछे चल रहे हैं। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति अपने स्वभाव में थिर होता है उस दिन अपने आप लोग पीछे चलना शुरू हो जाते हैं। क्योंकि वह अपूर्व धारा पैदा हो गई उसके भीतर, वह महा चुंबक उपलब्ध हो गया उसे, जिससे लोग खिंचने शुरू हो जाते हैं।
लेकिन उस घटना के पहले विरोध होगा। और उस घटना के पहले जो साथ थे वे साथ छोड़ देंगे। उस घटना के पहले जो अपने थे वे पराए हो जाएंगे। क्योंकि उनसे सारा संबंध झूठ का था; वह जबरदस्ती था। वह किसी भय
और लोभ के कारण था। आप अपने संबंधों को सोचें कि आपके संबंध किस तरह से खड़े हुए हैं। पति पत्नी से डरा हुआ है, इसलिए प्रेम किए चला जाता है। पत्नी डरी हुई है भविष्य से, आशंकित है—क्या होगा जीवन का; कहां भोजन, कहां रोटी, कहां मकान-वह पति की सेवा किए जाती है। लेकिन दोनों के बीच कोई, वह निसर्ग की कोई अनुभूति, कोई प्रेम का कोई स्फुरण नहीं है। और हम डराए जाते हैं एक-दूसरे को, क्योंकि हम जानते हैं यही हमारा संबंध है। या तो भय या लोभ, बस दो के आधार पर हम जीते हैं। इसलिए साथ चलते हुए लोग मालूम पड़ते हैं, लेकिन सिर्फ घिसटते हैं; कोई किसी के साथ नहीं चलता।
साथ तो कोई तभी चल सकता है जब कोई लोभ और कोई भय न रह जाए; जब सिर्फ दो प्रकृतियां मेल खाती हों और इसलिए साथ चलती हों। तब लाओत्से कहता है कि सारा संसार अनुगमन करता है।
लेकिन आप यह मत सोचना अपने मन में कि यह तरकीब अच्छी है सबसे अनुगमन करवाने की। अगर आप इस कारण स्वभाव की बात से प्रभावित हुए तो आप स्वभाव को कभी उपलब्ध न हो पाएंगे। स्वभाव को तो वही उपलब्ध होता है जो दूसरे की चिंता ही नहीं करता कि वह पीछे चलेगा कि नहीं चलेगा, कि साथी होगा कि दुश्मन हो जाएगा; दूसरे की जो चिंता ही छोड़ देता है।
बहुत बार लाओत्से के ऊपर स्वार्थी होने का आरोप लगाया गया। उस आरोप में थोड़ी सच्चाई है। क्योंकि लाओत्से कहता है कि तुम अगर ठीक से स्वभाव में हो जाओ-उसको ही वह कहता है ठीक स्वार्थ-तो सब घटना घटनी शुरू हो जाएगी। तुम दूसरे की चिंता ही मत करो, क्योंकि दूसरे की चिंता से ही सारा उपद्रव पैदा हो रहा है।
यह जरा जटिल है। क्योंकि हमारे मन में परोपकार की इतनी धारणा बैठी हुई है, और सब एक-दूसरे का उपकार करने में इस बुरी तरह लगे हुए हैं। और उनका उपकार दूसरे को बिलकुल नष्ट कर देता है। इसे हम थोड़ा समझें। क्योंकि एक धारणा मजबूत हो तो उससे बिलकुल प्रतिकूल धारणा समझ में आनी कठिन हो जाती है।
पति सोच रहा है कि वह पत्नी के लिए सब कुछ कर रहा है। पत्नी सोच रही है कि वह अपना जीवन गंवा रही है पति के लिए। दोनों मिल कर सोच रहे हैं कि हम बच्चों के लिए जी रहे हैं। कोई अपने लिए नहीं जी रहा है।
और जो अपने लिए नहीं जी रहा है उसके पार्स जीवन ही नहीं होता; वह दूसरे के लिए कैसे जीएगा? इसलिए खतरे होंगे। पति सोच रहा है, पत्नी के लिए मेहनत कर रहा है, तो पत्नी से बदला लेता रहेगा स्वभावतः। क्योंकि जिंदगी गंवा रहा है वह पत्नी के लिए। तो इसका बदला कौन लेगा? तो पत्नी पर वह क्रोध और रोष और दुष्टता जाहिर करता रहेगा। पत्नी सोच रही है, उसने अपना शरीर, अपना जीवन, अपना सब कुछ गंवा दिया इस पति के लिए; वह इससे बदला लेती रहेगी। और दोनों मिल कर बच्चों की गर्दन को कसे हैं; वे कहते हैं, हम तुम्हारे लिए जी रहे हैं, नहीं तो हमें जीने की कोई बात ही नहीं है।
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