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ताओ उपनिषद भाग ४
मनसंविद कहते हैं, वह जो संघर्ष है उससे उनके अहंकार को शक्ति बनी रहती है। रोज-रोज लड़ कर वे अपने को निखारते रहते हैं; ताजे बने रहते हैं। लड़ने को कुछ नहीं होता, आदमी ढीला पड़ जाता है, सुस्त हो जाता है।
आप देखते हैं, जब कभी युद्ध होता है तो मुल्क में कैसी जान आ जाती है! कैसा हर आदमी तेजी से चलने लगता है, और हर आंख में चमक मालूम होती है। लोग मर रहे हैं, और मुल्क में तेजी की लहर दौड़ जाती है। क्या कारण होगा? वह जो संघर्ष है वह आपको खबर देता है कि आप भी जिंदा है; आप भी कुछ कर सकते हैं। जब कुछ संघर्ष नहीं है तो आदमी खाली हो जाता है। फिर उसे लगता है कि मैं हूं या नहीं, इसका भी पता नहीं चलता। अपनी आइडेंटिटी, अपना तादात्म्य खोजना मुश्किल हो जाता है। इसलिए सारा जगत प्रतियोगिता में लगा रहता है। सच्ची प्रतियोगिता, नहीं तो हम झूठी प्रतियोगिता भी खड़ी कर लेते हैं।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा मेन कैम्फ में लिखा है कि अगर युद्ध न भी हो, रहा हो तो भी किसी मुल्क को अगर जवान रहना हो, तो युद्ध की आशंका को बनाए रखना चाहिए, कि युद्ध होने वाला है, कि युद्ध होने वाला है। इस आशंका को तो बनाए ही रखना चाहिए अगर मुल्क को जवान रहना हो। असली युद्ध न हो तो नकली युद्ध की हवा। यह जो कोल्ड वार चलती है दुनिया में वह उसीलिए चलती है। क्योंकि युद्ध हमेशा चलाए रखना आसान नहीं है। लेकिन ठंडा युद्ध हमेशा चलाया जा सकता है। उससे लोग जिंदा मालूम पड़ते हैं।
आप भी अपनी जिंदगी में प्रतियोगिता खोजते रहते हैं। अगर बाजार से मन नहीं भरता तो ताश फैला कर टेबल पर बैठ जाते हैं। लड़ाई शुरू, ताश के ऊपर लड़ाई शुरू। शतरंज रख लेते हैं। अब घोड़े और हाथी असली लेकर लड़ाई पर जाना जरा मुश्किल है तो लकड़ी के घोड़े-हाथी चलाने लगते हैं। और युद्ध का पूरा मजा! आप दिन भर के थके थे, वह थकान एकदम खो जाती है। जैसे ही शतरंज बिछाई गई, वह थकान खो गई। अब आप पूरी रात टिके रह सकते हैं। कौन यह शक्ति देता है आपको? यह शक्ति कहां से आती है?
यह शक्ति आती है अहंकार के संघर्ष से। इसलिए आप देखते हैं कि संन्यासी के चेहरे पर जो रौनक दिखाई पड़ती है लड़ने वाले संन्यासी के चेहरे पर वह रौनक कुछ तपश्चर्या का कारण नहीं है। वह एक ऐसी लड़ाई में लगा हुआ है जहां अहंकार की तृप्ति की बड़ी सुविधा है। आपकी लड़ाई दो कौड़ी की है। इसलिए जब भी आप उसके पास जाएंगे, वे कहेंगे: क्या कर रहे हो! क्या इकट्ठा कर रहे हो क्षणभंगुर संपदा! इस जीवन में क्या रखा है! हमारी तरफ आओ। हम उस जीवन को खोज रहे हैं जो शाश्वत है; हम उस संपदा की तलाश में है जो कभी नष्ट नहीं होती। वह एक बड़ी लड़ाई लड़ रहा है। उस बड़ी लड़ाई में उसमें रौनक है, ताजगी है; वह टिका हुआ है। लेकिन वह लड़ाई अहंकार को निर्मित कर रही है। और ध्यान रहे, अहंकार की रौनक रुग्ण है, और अहंकार की रौनक विषाक्त है।
लाओत्से कहता है कि ताओ का प्रवाह है सब कुछ; बाढ़ की भांति ताओ ही सब तरफ बह रहा है।
सभी कुछ स्वीकार करने जैसा है; यहां अस्वीकार करने जैसा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो भी अस्वीकृत हो रहा है वह भी परमात्मा है। मगर इतना बड़ा हृदय चाहिए स्वीकार करने का फिर। अस्वीकार करने के लिए तो क्षुद्र हृदय काफी है। इसलिए जो आदमी जितने छोटे हृदय का होता है उतना अस्वीकार करता रहता है, उतना निषेध करता रहता है। यह भी ठीक नहीं, यह भी ठीक नहीं, यह भी ठीक नहीं; इनकार करता रहता है। बहुत छोटा, संकीर्ण हृदय है।
अगर आप पूरे अस्तित्व को हां कह सकें तो ही आपको परमात्मा की प्रतीति शुरू होगी। वह कहीं छिपा नहीं है, वह यहीं प्रकट है। वह सब जगह प्रकट है। सभी रूप उसके हैं; सभी अभिव्यक्तियां उसकी हैं। सभी घटनाओं में वह छिपा है। जिसको हम बुरा कहते हैं वह हमारी व्याख्या है; जिसको हम भला कहते हैं वह हमारी व्याख्या है। लेकिन परमात्मा बुरे में भी है और भले में भी। क्योंकि हमारी व्याख्याएं परमात्मा को निर्धारित नहीं करतीं।