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सारा जगत ताओ का प्रवाह है
सूत्र में प्रवेश करें। 'महान ताओ सर्वत्र प्रवाहित है; दि ग्रेट ताओ फ्लोज एवरीव्हेयर।।
सब कहीं प्रवाहित है। दो बातें हैं इसमें। एक तो सब कहीं, सर्वत्र, एवरीव्हेयर; और दूसरी बात, प्रवाहित है। लाओत्से के मन में परमात्मा कोई स्टेटिक कंसेप्ट, कोई ठहरी हुई धारणा नहीं है; प्रवाहपूर्ण है।
- यह भी समझने जैसा है। क्योंकि जब भी हम ईश्वर की बात करते हैं तो हमें लगता है कि कोई चीज जो ठहरी हुई है, कोई चीज जो स्थिर है, कोई चीज जिसमें कोई परिवर्तन नहीं होता, कोई चीज जिसमें परिवर्तन की कोई संभावना ही नहीं है। क्योंकि हमारे मन में पूर्णता का अर्थ ही यह होता है कि जिसमें परिवर्तन न हो।
इसे थोड़ा समझें। क्योंकि लाओत्से का अर्थ बड़ा अलग है। हमारे मन में, अगर हम कहें कि ईश्वर भी विकासमान है, तो उसका तो मतलब हुआ कि वह भी अधूरा है। क्योंकि विकास तो उसी में होता है जिसमें कमी है। एक बच्चा विकसित होता है; वह कम है अभी। एक पौधा विकसित होता है, बड़ा होता है; छोटा था। सब चीजें विकसित होती हैं, विकास में परिवर्तित होती हैं। लेकिन परमात्मा कैसे विकसित होगा? क्योंकि वह तो पूर्ण है। उसमें तो कोई हलन-चलन भी नहीं हो सकता; उसमें कोई गति और प्रवाह नहीं हो सकता।
लेकिन ध्यान रहे, अगर परमात्मा में कोई गति और प्रवाह नहीं है तो परमात्मा मुर्दा होगा। लाओत्से की दृष्टि में इस तरह की पूर्णता तो मौत का पर्याय है। आदमी तभी बढ़ना रुकता है जब मर जाता है। कोई भी चीज तभी ठहर जाती है जब उसमें और जीवन नहीं रह जाता। जीवन तो प्रोसेस है; जीवन तो प्रवाह है, प्रक्रिया है। जीवन कोई ठहरी हुई चीज नहीं है; नदी की भांति है।
लेकिन परमात्मा को प्रवाह कहने में हमें बहुत डर लगेगा। क्या वह भी विकसित हो रहा है? क्या वह भी गतिमान है? क्या उसमें भी नया घटित हो रहा है? हमारे मन में परमात्मा बिलकुल पत्थर का, जड़, ठहरा हुआ रूप है। संसार में गति है; परमात्मा में कोई गति नहीं है। संसार में प्रवाह हैपरमात्मा बिलकुल ठहरा है।
पर हमारी धारणा लाओत्से को मुर्दा लगती है। और वह कहता है कि जो ऐसा ठहरा हुआ परमात्मा है उससे इस प्रवाहपूर्ण जगत का कैसे संबंध हो सकता है? ऐसा मरा हुआ जो परमात्मा है उससे इस जीवंत-गति का, इस गत्यात्मकता का, इस डायनामिज्म का क्या नाता हो सकता है? लाओत्से उनको बांटता भी नहीं है। लाओत्से कहता है, यह प्रवाह ही परमात्मा है। तब उसकी धारणा पूर्णता की बिलकुल अलग हो जाती है। लाओत्से पूर्णता शब्द का प्रयोग पसंद नहीं करता, वह समग्रता शब्द का प्रयोग करता है।
ये दोनों शब्द बड़े अदभुत हैं। पूर्णता, परफेक्शन; समग्रता, होलनेस। पूर्णता का अर्थ होता है कि अब इसमें और कोई आगे गति की संभावना नहीं है; सब समाप्त हो गया। समग्रता का अर्थ होता है पूरापन, टोटैलिटी; इस क्षण भी पूर्ण है, अगले क्षण भी पूर्ण होगा। लेकिन प्रवाह है।
इसे हम ऐसा समझें। नदी को आपने देखा, गंगा को, गंगोत्री पर। बहुत छोटी है, बड़ी पतली धार है; लेकिन उस क्षण भी उसका सौंदर्य समग्र है। फिर आगे बढ़ी है; पहाड़ों को पार किया है। हजारों और धाराएं जलधाराएं आकर मिल गई हैं। फिर मैदान में उसका विराट रूप है। वहां भी उसका सौंदर्य समग्र है। फिर सागर में गिर रही है
और खो रही है। वहां भी उसका सौंदर्य समग्र है। तीन जगह आपने देखा-गंगोत्री में देखा, मैदानों में देखा, सागर में गिरते देखा। गंगोत्री में जिस गंगा को आपने देखा है, सागर में गिरती गंगा उससे ज्यादा पूर्ण नहीं हो गई है। वहां भी समग्र थी; अपने छोटेपन में भी एक होलनेस, एक समग्रता थी।
एक बीज भी समग्र है और एक वृक्ष भी समग्र है; लेकिन बीज की समग्रता में और वृक्ष की समग्रता में एक प्रवाह है। लाओत्से नहीं कहेगा कि वृक्ष पूर्ण हो गया और बीज अपूर्ण था। लाओत्से कहेगा कि बीज भी पूर्ण था,