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३७३ " मनके कारण यह सव है", महात्माकी देह दो कारणोने विद्यमान उपाधियोगमे प्रवृत्ति करना श्रेयस्कर कब २७४ ज्ञानीका वैभव और मुमुक्षु वर्तमानमें ममतापूर्वक प्रवृत्ति करनेका दृढ निश्चय करना योग्य, भविष्यचिताने परमार्थका विस्मरण, लज्जा और आजीविका मिथ्या, ममपरिणाममें परिणमित होना
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३७९ तरनतारन, मोक्ष दुर्लभ नही, दाता दुर्लभ, निस्पृह बुद्धि, 'वनकी मारी कोयल'
३८० मोक्षका धुरवर मार्ग, प्रभुभक्ति मनकी
स्थिरताका उपाय, सद्गुणोसे योग्यता प्राप्त
करना
३८१ वैराग्ययुक्त पुस्तकें पढ़ें
३८२ वैराग्यवर्धक अध्ययन, मतमतातरका त्याग ३८३ विचारवानको ससार सर्वधा क्लेशरूप
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तेरहवें गुणस्थानकवर्तीका स्वरूप ३८४ 'दुपम कत्रियुगमे' जिसका चित्त विह्वलता, विक्षेप आदि अलिप्त रहा वह 'दूसरा श्रीराम' है, लगभग १७ घंटे उपाधि योग, अनादि कालवा दृष्टिभ्रम दूर नही हुआ ! ३८५ मूयं जैसे ही शादी है, ज्ञानीके मवधमें अपने जैमी दारीपना हमारा चित्त नेत्र जैसा, धन्यरूप - कृतार्थम्प हममें यह उपनियोग
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३७५ जिनागम उपशमस्वरूप, आत्मार्थके लिये उसका आराधन, राग आदि दोषोकी निवृनि एक आत्मज्ञानसे, मत्सगका माहात्म्य, कर्मक्लेशकी निवृत्ति एव आत्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिये सूत्रकृतागका अध्ययन व श्रवण कर्तव्य
३७६ प्रानीकी देह और वर्तन, प्रवृत्ति-योग परेच्छासे, अविपमताने आत्मध्यान ३७७ नवपदको मपत्ति भी आत्मामें आत्मस्थज्ञानी पुरुषका स्वरूप, 'ईश्वरेच्छा' का अर्थ ३४० ३७८ निश्चयसे अकर्ता, व्यवहारसे कर्ता इत्यादि विचारणीय, छ मामसे परमार्थके प्रति निर्विकल्प
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३८६ परिपक्व समाविरूप ३८७ स्वस्वरूपज्ञानसे छुटकारा, जिन होकर जिनकी आराधना, मुख्य समाधि ३८८ जगत जिसमे सोता है, उसमे ज्ञानी जागता
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३८९ 'सत्ज्ञान' को समझ कव ? जगत और मोक्षका मार्ग एक नही
३९० त्वरासे कर्मक्षय करनेका अनेक वर्षोका
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३९६ अनवकाश आत्मस्वरूप, उम पुरुषके स्वरुपको जानकर उसकी भक्तिके सत्मगका महान फल, 'मन महिलानु वहाला उपरे' का पुन' विवेचन ३९७ क्षायिक ममकित, उसके निषेवक जीवोके प्रति केवल निष्काम करुणादृष्टि, यही परमार्थ मार्ग है, ज्ञानीपुरुषको अवज्ञा और गुणगानका फल, क्षायिक ममकितकी आश्चर्यकारक व्याख्या, व्याख्याओको सत्पुरपके आशय से जानना सफल, माननेका फल नहीं पर दशाका फल है, उपदेशक जीव अपनी दशा विचारे, उपर्युक्त शब्द आगम ही है । ३९८ कालकी दु पमता, परमार्थवृत्तिको क्षीणता, कालका स्वरूप देखकर अनुकपा, दुर्लभ पुरुपयोग, वर्तमानमें जीवीका कल्याण हमसे ही, परमार्थ किस प्रकारके सप्रदायते
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सकल्प, ध्यानसुख
३९१ 'सत्' एक प्रदेश भी दूर नही, तथापि अनत
अतराय अप्रमत्ततासे 'सत्' का श्रवण आदि ३४५ ३९२ सनातनधर्म - अवसरप्राप्तमें सतुष्ट रहना ३४५ ३९३ पूर्वकाल में आराधित उपाधि उदयरूपसे
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समाधि है, आनदघनजीके दो पद्योकी स्मृति ३४५ ३९४ 'मन महिलानु रे वहाला उपरे', और 'जिनस्वरूप थई जिन आराधे' पद्योका विवेचन, भक्तिप्रधान दशा, उस मूर्तिको प्रत्यक्षता में गृहाश्रम और चित्रपटमें मन्यस्ताश्रम, उस आत्मस्वरूप पुरुषकी दशा विचारणीय है ३४६ ३९५ 'तेम श्रुतवर्मे रे मन दृढ घरे' का विवेचन, दुख मिटनेका मार्ग
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