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तीर्थकरों के धर्मकों ही समझते है शेष पाखड तथा गृहस्त बर्य इन्ही सर्वको अनर्थका हो हेतु समझते है । उन्ही श्रावकोंके हृदय स्फटक माफक उज्वल मायाशल्य रहित निर्मल है । उदास्ता है कि घरके द्वार हमेशों खुले रहेते है अर्थात् उन्होके घरपर मानासे कोई मी भिक्षु निरास होके नही जाते है । उदारता एक शासनका भूषण है । राजाके अन्तेवर तथा धनाड्यके भंडारमे चले जानेपर भी उन्होंकि अप्रतित नहीं है अर्थात् चौरी नारीके कुविशन उन्ही श्रावकोंसे हनार हाथ दुरे रहते है । धर्मकरणीमें भी दृढ है जो चतुर्दशी अष्टमि पूर्णमावश्यके रोन पौषद करते है अर्थात् प्रतिमास छेछे पौषद करते है । और साधु महात्मावोंकों निर्दोष फासुक असन पान खादिम सादिम वस्त्र पात्र कम्बल मोहरन पाठफलग सय्या ( मकान ) सस्यारा ( तृणादि ) औषद वैसज्ज एवं १४ प्रकारका दान देते हुवे आपनि आत्म मानना निर्मल रखते हुवे विचरते है । एसा श्रावक बहुत काल श्रावक व्रत पालते हूवे आलोचना कर समाधि मरण मरके कहां जाते है।
(3) हे गौतम ! उक्त श्रावक समाधि पूर्वक काल कर उत्कृष्ट बारहवा देवलोकमें उत्कृष्ट बावीस सोगरोपमकि स्थिति वाला देवता होता है वह परलोगका आराधी होता है। भवान्तरके अन्दर आवश्य मोक्ष जावेगा।
(१९) हे भगवान् ! प्रामादिके अन्दर एकक एसे भी मनुप्व होते है कि अनारंभी अपरिग्रह अर्थात् द्रव्य और मावसे प्रारंभ परिग्रहको त्यागन किया हो वह धर्मी यावत् धर्म कि चितवन करनेवाला । सर्वते प्रकारे प्रणातिपातादि सर्व पापोंकर