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(१७) (३) अव्वत्तिया-साधुवोंमें चौरादिककि शंका से साधु है * नहीं ऐसा आषाढाचार्यके शिष्यक्त
. (१) सामुच्छिया-नरकादिक जीव क्षणक्षीणमें विच्छेद होता है एसा माननेवाला अश्वमित्रवत् १. (५) दो किरिया-एक समयमें दो क्रिया लगति है एसा माननेवाला गंर्गाचार्यवत् ६ (६) तेरासिया-जीवरामी, अनीवरासी, जीवानीवरासी, सह तीनरासी माननेवाला गोष्ट गलीकावत
(७) सव्वाठिया-जीवकों कर्म सर्प कचुकवत लगते हैं एसा माननेवाला प्रन्याप तवत् समझना : विशेष कथावों देखो उववाई तथा स्थानायांगसूत्रों से ।
यह सात प्रवचनके निन्हव थे इन्होंके मात्र लिंग ही अवका था परन्तु श्रद्धा विप्रीत थी वास्ते अभिनिवेप्स मिथ्यात्वके उदय स्वयं अपनि आत्मा और अन्य परात्मावोंको सद रहस्तेसे भ्रष्टकर उन्मर्गमे लेजाता इव वह बहुतसे काल तपश्चर्यदि काय कलेस भरता हूवा अनालोचनासे मृत्यु धर्मको प्राप्त हो कहा जाते है। ___(उ) हे गौतम । उक्त सातों प्रकारके प्रवचन नन्हव क्रियाके पूर्ण बलसे उत्कृष्ट नवोमि ग्रीवैग तक जाते है वहांपर एकतीस सागरोपमकि स्थितिवाले देवता होते है किन्तु परभवका आराधी नहीं हो शक्ते है ऐसे नौग्रीवैगमे जीव अनन्तीवार जा जाके माया है परन्तु भव भ्रमणसे मही छूटता है वास्ते माराधीकपणेको,
शीष आवश्य करना चाहिये इसमें मौख्य वीतरागकि आजा गान करनासे ही आराधीपणा आशक्ता है।