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(१६) मट के बड़े बरतन में प्रवेश कर तपश्चर्य करे. इत्यादि अभिग्र करते हुवे बहुतसे काल तक विचरे अन्तमें काल कर काहा जावे।
(उ) हे गौतम । उक्त आनीवकामत्ति अन्तिम काल कर बारह वा देवलोकमे उत्कृष्ट बावीस सागरोपम कि स्थितिमें उत्पन्न होता है । परन्तु परभवका आराधीक नही हो शक्ता है क्रियाके बलसे पौदगलीक सुख मीलता है परन्तु सकाम निर्जर नहोनासे संसारका अन्त नही कर शक्ता है ।
(१६) हे भगवान । ग्रामादिके अंदर एकेक एसा भी साधु होता है कि जैन दीक्षा लेनेके बाद में उत्कृष्टा हूं। इन्होंसे पारका अवगुण बाद बोले परक निंद्या करनेवाले, भूतिकम मिंत्र यंत्र तंत्र चुरणादि करनेवाले, हासी ठठा मीसारी कोनुकादि करनेवाले बहुतसी क्रिया करते हूवे बहुतसे काल दीक्षां पाले परन्तु आलोचना नहीं करे वह कोनसे स्थानमें जाते है।
(उ) हे गौतम । उक्त सधु आलोचना नहीं करते हुवे काल करके बारहवा देवलोकमें अयोगीक-आदेशमें रहनेवाले कितूहल करनेवाले देवतापणे उत्पन्न होते है उत्कृष्ट बावीस सोगरोपमकि स्थिति होती है परन्तु परलोकके आराधीक नहीं होता है ।
__ (१७) हे भगवान । ग्रामादिकके अन्दर दीक्षा लेनेके बाद प्रवचनके नन्हव होते है। - (१) बहुस्था-बहुत समयमें कार्य होता है किंतु एक समयमें कार्य न होवे एसा मत्त जमाली अनगारका था । . (२) जीव प्रदेशीक-जीवके एक प्रदेशमें नीव माननेवाला तीस गुप्तका मत्त । .. .....