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५, ३, १०.)
फासाणुओगद्दारे ठवणफासो णामफासो णाम। कधमेक्कम्हि कम्म-कत्तारभावो जुज्जदे? ण, सुज्जेंदु-खज्जोअ-जलणमणिणक्खत्तादिसु उभयभावुवलंभादो । एवं णामफासपरूवणा गदा।
जो सो ठवणफासो णाम सो कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेणकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जदि फासे त्ति सो सम्वो ठवणफासो गाम ॥ १०॥
कट्ठेसु जाओ पडिमाओ घडिदाओ दुवय-चउप्पय-अपाद-पादसंकुलाणं ताओ कट्टकम्माणि णाम। एदाओ चेव चउविहाओ पडिमाओ कुड्ड-पड-त्थंभादिसु रायवट्टादिवण्णविसेसेहि चित्तियाओ चित्तकम्माणि णाम । हय-हत्थि-णर-णारि-वय-वग्धादिपडिमाओ वत्थ विसेसेसु उद्दाओ पोत्तकम्माणि णाम। मट्टिया-खड*-सक्करादिलेवेण
स्पर्शशब्द नामस्पर्श कहलाता है।
शंका- एक ही स्पर्श शब्दमें कर्मत्व व कर्तृत्व दोनों कैसे बन सकते हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि लोकमें सूर्य, चन्द्र, खद्यात, अग्नि, मणि और नक्षत्र आदि ऐसे अनेक पदार्थ हैं जिनमें उभयभाव देखा जाता है । उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ- यहां स्पर्श शब्दको अन्य पदार्थका वाचक न मानकर वही उसका वाच्य और वही उसका वाचक माना गया है। इसीपर यह शंका की गई है कि एक ही स्पर्श शब्द एक साथ कर्ता और कर्म दोनों कैसे हो सकता है? इसका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र आदि प्रकाशमान एक एक पदार्थमें युगपत् प्रकाश्य-प्रकाशकभाव देखा जाता है उसी प्रकार यहां एक स्पर्श शब्दको भी युगपत् कर्ता और कर्म मानने में कोई वाधा नहीं आती।
इस प्रकार नाम स्पर्श प्ररूपणा समाप्त हुई।
जो वह स्थापनास्पर्श है वह काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोतकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेंडकर्म इनमें; तथा अक्ष और वराडक एवं इनको लेकर इसी प्रकार और भी जो एकत्वके संकल्पद्वारा स्थापना अर्थात् बुद्धिमें स्पर्शरूपसे स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनास्पर्श है ॥१०॥
दो पैर, चार पैर, विना पैर और बहुत पैरवाले प्राणियोंकी काष्ठमें जो प्रतिमाएं बनाई जाती हैं उन्हें काष्ठकर्म कहते हैं। जब ये ही चार प्रकारको प्रतिमाएं भित्ति, वस्त्र और स्तम्भ आदिपर रागवर्त आदि वर्णविषोंके द्वारा चित्रित की जाती हैं तब उन्हें चित्रकर्म कहते हैं। घोडा, हाथी, मनुष्य, स्त्री, वृक और वाघ आदिकी वस्त्रविशेष में उकीरी गई प्रतिमाओंको पोतकर्म कहते हैं।
@प खं पु ९ पृ. २४८. * अ-ताप्रत्यो: 'वुत्थु' इति पाठः । * ताप्रतौ ‘ख (क) ड' इति पाठः ।
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