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५, ४, २६.) कम्माणुओगद्दारे तवोकम्मपरूवणा
( ६५ ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गलवियारस्स जडस्स णाणोलिंग भदस्स सुदत्तविरोहादो। थोवदव्वसुदेण अवगयासेसणवपयत्थाणं सिवभूदिआदिबीजबुद्धीणं ज्झाणाभावेण मोक्खाभावप्पसंगादो। थोवेण णाणेण जदि ज्झाणं होदि तो खवगसेडि-उवसमसेडीणमप्पाओग्गधम्मज्झाणं चेव होदि। चोद्दस दस-णवपुव्वहरा पुण धम्म-सुक्कज्झाणाणं दोण्णं पि सामित्तमुवणमंति, अविरोहादो। तेण तेसि चेव एत्थ णिद्देसो कदो।
___सम्माइट्ठी- ण च णवपयत्थविसयरुइ-पच्चय-सद्धाहि विणा झाणं संभवदि, तप्पत्तिकारणसंवेग-णिवेयाणं अण्णत्थ असंभवादो। चत्तासेसबझंतरंगगंथो- खेत्तवत्थु-धण-धण्ण-दुवय-चउप्पय-जाण-सयणासण-सिस्स-कुल-गण-संघेहि जणिदमिच्छत्त -कोह-माण-माया-लोह-हस्स-रइ-अरइ-सोग-भय-दुगुंछा-त्थी-पुरिस-णवंसयवेदादिअंतरंगगंथकंखापरिवेढियस्स सुहज्झाणा*णुवधत्तीदो । एत्थ गाहा
ज्झाणिस्स लक्खणं से अज्जव-लहुअत्त-वुड्ढवुवएसा*। उवएसाणासुत्त णिस्सग्गगदाओ रुचियो से ।। १३ ।।
द्रव्यश्रुतका यहां अधिकार नहीं है, क्योंकि, ज्ञान के उपलिंगभूत पुद्गलके विकार स्वरूप जड वस्तुको श्रुत मानने में विरोध आता है।
यदि कहा जाय कि स्तोक द्रव्यश्रुतसे नौ पदार्थों को पूरी तरह जान कर शिवभूति आदि बीजबुद्धि मुनियोंके ध्यान नहीं माननेसे मोक्षका अभाव प्राप्त होता है, तो इसपर यह कहना है कि स्तोक ज्ञानसे यदि ध्यान होता है तो वह क्षपकश्रेणि और उपशमश्रेणिके अयोग्य धर्म ध्यान ही होता है। परन्तु चौदह, दस और नौ पूर्वोके धारी तो धर्म और शुक्ल दोनों ही ध्यानोंके स्वामी होते हैं, क्योंकि, ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं आता। इसलिये उन्हींका यहां निर्देश किया है।
(२) वह (ध्याता) सम्यग्दृष्टि होता है। कारण कि नौ पदार्थ विषयक रुचि, प्रतीति और श्रद्धाके विना ध्यानको प्राप्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, उसकी प्रवृत्तिके मुख्य कारण संवेग और निर्वेद अन्यत्र नहीं हो सकते।
(३) वह (ध्याता) समस्त बहिरंग और अन्तरंग परिग्रहका त्यागी होता है, क्योंकि, जो क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, शिष्य, कुल, गण और संघके कारण उत्पन्न हुए मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया और लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुष वेद और नपुंसक वेद आदि अन्तरंग परिग्रहकी कांक्षासे वेष्टित है उसके शुभ ध्यान नहीं बन सकता । इस विषयमें गाथा
जिसकी उपदेश, जिनाज्ञा और जिनसूत्रके अनुसार आर्जव, लघुता और वृद्धत्व गुणसे युक्त स्वभावगत रुचि होती है वह ध्यान करनेवाले का लक्षण है ।। १३ ।।
अ-अ.प्रत्योः 'जलस्स मामोलिंग',ताप्रती 'जलस्स माभोवलिंग' इति पाठः । आ-ताप्रत्यो 'मिछति' इति पाठः । ॐ अप्रती गाथकथा-', आप्रतौ 'गत्थवि कंक्खा', ताप्रती · गंथाविकंधा' इति पाठः । * अ-आप्रत्यो: 'सुहजाणा-' इति पाठः । * आप्रतौ ' वुवएसो' इति पाठः 0 अप्रतौ .."रुनीयासे', आप्रतौ ‘णासुतणिस्ससगं जगदाओ रुच्चियो सेसो' इति पाठः ।
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