Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 416
________________ ५, ५, १२०.) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा (३७९ संपहि एत्थ जहण्गोगाहणमस्सिदण मणसगइपाओग्गाणपुस्विवियप्पा एत्तिया चेव लब्भंति। कुदो? साभावियादो। ण च सहाओ परपज्जणियोगारहो, अव्ववत्थावत्तीदो। के वि आइरिया मुहसंठाणाणि चेव आणुपुत्वीदो उप्पज्जति ति भणंति । तण्ण घडदे, सेसावयवसंठाणाणमकारणुप्पत्तिप्पसंगादो। एवाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि कधमुप्पण्णाणि त्ति भणिदे उच्चदे-उडकवाडच्छेदगिप्पण्णाणि त्ति । इदरेसिमाणुपुस्विकम्माणं तिरियपदराणं घणलोगस्स य उत्पत्तिमपरूविय एदेसि चेव तिरियपदराणमुप्पत्ती किमळं परूविज्जदे ? लोगसंठाणपरूवणठें। उड्डकवाडमिदि एदेण लोगो णिहिट्ठो। कधमेसा लोगस्स सण्णा? वुच्चदे2-ऊवं च तत् कपाटं च ऊर्ध्वकपाटं, ऊर्ध्वकपाटमिवरलोकः ऊर्ध्वकपाटम् । जेण लोगो चोद्दसरज्जु उस्सेहो सत्तरज्जुरुंदो मज्झे उवरिमपेरंते च एगरज्जुबाहल्लो उवरि बम्हलोगद्देसे पंचरज्ज बाहल्लो मुले सत्तरज्जुबाहल्लो अण्णत्थ जहाणुवडिबाहल्लो, तेण उट्ठियकवाडोवमो। उड्डकवाडस्स छेदणं उड्डकवाडच्छेदणं तेण* उड्डकवाढच्छेदणेण णिप्पण्णाणि एदाणि पणदालीसजोयणसदसहस्सबा हल्लतिरियपदराणि। आलम्बन लेकर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके इतने ही विकल्प उपलब्ध होते हैं, क्योंकि ऐसा स्व भाव है। और स्वभाव दूसरोंके द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता, अन्यथा अव्यवस्था प्राप्त हो जावेगी । कितने ही आचार्य आनुपूर्वीसे मुखसंस्थान ही उत्पन्न होते हैं ऐसा कथन करते हैं। वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर शेष अवयवोंके संस्थानोंकी अकारण उत्पत्तिका प्रसंग आता है। ये पैंतालीस लाख योजन बाहल्य रूप तिर्यप्रतर कैसे उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहनेपर सूत्र में उड्डकवाडच्छेदणणिप्पण्णाणि' यह वचन कहा है। ____ शंका - इतर आनुपुर्वी कर्मोंके तिर्यप्रतरोंकी और घनलोककी उत्पत्ति न कहकर इन्हींके तिर्यकप्रतरोंकी उत्पत्ति किसलिए कही जाती है ? समाधान - लोकसंस्थानका कथन करने के लिए। ' उनकवाडं' इस पदके द्वारा यहां लोकका निर्देश किया हैं। शंका - यह लोकको संज्ञा कैसे कही जाती हैं ? समाधान - ऊर्ध्व ऐसा जो कपाट वह ऊर्ध्वकपाट है, ऊर्ध्व कपाटके समान होनेसे लोक उर्ध्वंकपाट कहलाता है । यतः लोक चौदह राजु ऊंचा, सात राजु चोडा, मध्यमें और ऊपर अतिम भागमें एक राजु बाहल्यवाला, ऊपर ब्रह्मलोकके पास पांच राजु बाहल्यवाला, मुल में सात राजु बाहल्यवाला, तथा अन्यत्र वृद्धिके अनुरूप बाहल्यवाला है; अतः वह ऊर्ध्वस्थित कपाटके समान कहा गया है । ऊर्ध्वकपाटका छेदन ऊर्ध्वकपाटछेदन है, उस ऊर्ध्वकपाटछेदनसे ये पैंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यप्रतर निष्पन्न हुए हैं। ताप्रती · सण्णा वृच्चदे ? ' इति पाठ: 10 अ-आ-काप्रतिषु । कपाटं च ऊर्ध्वकपाटमिव ' इति पाठः। ताप्रती 'पंजरज्जु 'इति पाठः। ताप्रती · उनकवाडस्स छेदणं तेण 'इति पाठ:1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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