Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 419
________________ ३८२) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड (५, ५, १२१. पमाणत्ते संदिद्ध संते सव्वस्स अप्पमाणत्तविरोहादो । पमाणतं कूदो णव्वदे ? रागदोस-मोहाभावेण पमाणीभूदपुरिसपरंपराए आगदत्तादो। अम्हाणं पुण एसो अहिप्पाओ जहा पढमपरूविदअत्थो चेव भद्दओ, ण बिदिओ ति। कुदो? पणदालीसजोयणलक्खबाहल्लाणं तिरियपदराणं अद्धच्छेदणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गणिवाओ ति सुत्ते संबंधुज्जोवछट्टिअंतणिद्देसाभावादो णिरत्थयउड्ढकवाडच्छेदणयणिसादो वा, केसु वि सुत्तपोत्थएसु बिदियमत्थमस्सिदूर्ण परूविदअप्पाबहुआभावादो च। एदाए ओगाहणाए + लद्धआणुपुग्विपयडीओ ठविय सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं महामच्छुक्कस्सोगाहणाए सोहिय एगरूवे पक्खित्ते सेडीए अखंखेज्जदिमागमेत्ता ओगाहणवियप्पा होंति । एदेहि ओगाहणवियप्पेहि एगोगाहणआणुपुग्विवियप्पेसु गुणिदेसु मणुसगइपाओग्गाणपुवीए सवपयडिसमासो होदि। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए केवडियाओ पयडीओ? ।१२१॥ सुगमं। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए पयडीयो णवजोयणसवबाह समाधान- नहीं, क्योंकि एक उद्देश में प्रमाणताका सन्देह सबको अप्रमाण मानने में विरोध आता है। शंका-- सूत्रकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? समाधान-- राग, द्वेष और मोहका अभाव हो जानेसे प्रमाणीभूत पुरुषपरम्परासे प्राप्त होने के कारण उसकी प्रमाणता जानी जाती है। हमारा तो यह अभिप्राय है कि पहले कहा गया अर्थ ही उत्तम है, दूसरा नहीं; क्योंकि 'पंतालीस लाख योजन बाहल्यरूप तिर्यकप्रतरोंके अर्द्धच्छेदोंको जगश्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र अवगाहनाविकल्पोंसे गुणित करे' इस प्रकार सूत्र में सम्बन्धको दिखानेवाले षठ्यन्त निर्देशका अभाव है, अथवा ऊर्ध्वकपाट छेदनका निर्देश निरर्थक किया है, कितनी ही सूत्रपोथियोंमें दूसरे अर्थका आश्रय करके कहे गए अल्पबहुत्वका अभाव भी है । इस अवगाहनासे प्राप्त आनुपूर्वी प्रकृतियोंको स्थापित करके सूक्ष्म निगोद लब्ध्यप - प्तिककी जघन्य अवगाहनाको महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे घटाकर जो शेष रहे उसमें एक अंक मिलानेपर जगश्रेणिके असंख्यातवे भाग प्रमाण अवगाहनाविकल्प होते हैं। इन अवगाहनाविकल्पोंसे एक अवगाहना सम्बन्धी आनुपूर्वीविकल्पोंको गुणित करनेपर मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सब प्रकृति विकल्पोंका जोड होता है। । देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। १२१ ॥ ___ यह सूत्र सुगम है । देवगतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियों नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यकप्रतरोंको 1 अप्रतो ' अह मं पुण', आकाप्रत्योः · अहमं पुण', ताप्रतौ — अह मंषुण (अम्हाणं पुण)' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु' पढमं परूविदं अत्थो ' इति पाठ: 1 + अ-आ-काप्रतिषु । तिरियपदराणि ' इति पाठः । ताप्रती 'एदाए एगो ( ओ ) गाहणाए ' इति पाठ: 1 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.

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