Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 426
________________ ५, ५, १ ३७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा ( ३८९ इति ? न, जिनवचनस्यासत्यत्वविरोधात । तद्विरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयोकतेष्वर्थेषु सक्लेष्वपि रजोजुषां ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्येत । न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसा - ध्वाचाराणां साध्वाचारैः कृतसम्बन्धानां* आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहारनिबंधनानां पुरुषाणां सन्तानः उच्चर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युचैर्गोत्रम । न चात्र पूर्वोक्तदोषाः सम्भद्विवंति, विरोधात्। तपरीतं नीचर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे प्रकृती भवतः । अंतराइयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ? ॥ १३६ ॥ सुगमं। अंतराइयस्स कम्मस्स पंच पयडीओ-दाणंतराइयं लाहंतराइयं भोगंतराइयं परिभोंगंतराइयं विरियंतराइयं चेदि । एवडियाओं पयडीओं ॥ १३७॥ अंतरमेति गच्छतीत्यन्तरायः*। रत्नत्रयवद्भ्यः स्ववित्तपरित्यागो दानं रत्नत्रयसाधनदित्सा वा । अभिलषितार्थप्राप्तिाभः । सकृद्भुज्यत् इति भोगः गन्ध-ताम्बूल ___ समाधान - नहीं, क्योंकि, जिनवचनके असत्य होने में विरोध आता है । वह विरोध भी वहां उसके कारणोमें नहीं होनेसे जाना जाता है। दूसरे, केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं हैं। इसीलिए यदि छद्मस्थोंके कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते हैं तो इससे जिनवचनको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । तथा गोत्रकर्म निष्फल है, यह बात नहीं है; क्योंकि जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है, साघु आचारवालोंके साथ जिन्होंने सम्बन्ध स्थापित किया है, तथा जो 'आर्य' इस प्रकारके ज्ञान और वचनव्यवहारके निमित्त हैं; उन पुरूषों की परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है । तथा उनमें उत्पत्तिका कारणकर्म भी उच्चगोत्र है । यहां पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं हैं, क्योंकि, उनके होने में विरोध है । उससे विपरीत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी दो ही प्रकृतियां होती है । अन्तराय कर्मको कितनी प्रकृतियां हैं ? ।। १३६ ॥ यह सूत्र सुगम है। अन्तराय कर्मको पांच प्रकृतियां हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । उसको इतनी मात्र प्रकृतियां हैं ॥ १३७ ॥ जो अन्तर अर्थात् मध्यमें आता है वह अन्तरायकर्म है। रत्नत्रयसे युक्त जीवोंके लिए अपने वित्तका त्याग करने या रत्नत्रयके योग्य साधनोंके प्रदान करनेकी इच्छाका नाम दान है। अभिलषित अर्थकी प्राप्ति होना लाभ है । जो एक बार भोगा जाय वह भोग है । यथा- गन्ध, आ-का-ताप्रतिष · कृतसबंधनानां ' इति पाठ: काप्रती हेतुः कमप्युच्चैः गोत्रं', ताप्रती ' हेतुकमप्यच्चैर्गोत्रं ' इति पाठः। षट्खं जी. च. १, ४६. दात-देयादीनामन्तरं मध्यमेतीत्यन्तरायः। स. सि.८, ४. दात-पात्रयोदयादेयवोश्च अन्तरं मध्यम एति गच्छतीत्यन्तरायः । त. व, ८. ४,१४ ताप्रती मुज्जत' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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