Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 429
________________ ३९२ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १४१. स्थलचराः। खे चरन्तीति खचराः । अणिमादिगुणैर्दोव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । मनसा उत्कटाः मानुषाः । तिरः अच्चन्ति कौटिल्यमिति तियंचः । न रमन्त इति नारकाः । एतेषां निजानुगा या प्रकृतिः सा सर्वा नोआगमभावप्रकृतिर्नाम । एतत्सूत्रं येन देशामर्श कं तेन ये केचन जीवभावाः कर्मवर्जित अजीवभावाश्च ते सर्वेप्यत्र वक्तव्याः । एवं नोआगमदो भावपयडीए सह भावपयडी समत्ता । एवासि पयडीणं काए पयडीए पयदं ? कम्मपयडीए पयदं ॥ एदमवसंहारमस्सिदृण भणिदं । अणुवसंहारे पुण आसइज्जमाणे नोआगमदव्वपडीए णोआगमभावपयडीए च अहियारो, तत्थ दोष्णं वित्थारपरूवणादो | एवं पगडणिक्खंवेत्ति समत्तं । सेसं वेदणाए भंगों ॥ १४२ ॥ साणुओगद्दाराणं जहा वेयणाए परूवणा कदा तहा कायव्वा । एवं पगदित्ति समत्तमणुयोगद्दारं । 1990 ♣♣♣♣♣♣♣+6‹ अबोधे बोधं यो जनयति सदा शिष्यः कुमुदे प्रभूय प्रहलादी दुतिपरितापोपशमनः । तपोवृत्तिर्यस्य स्फुरति जगदानन्दजननी जिनध्यानासक्तो जयति कुलचन्द्रो मुनिरयम् ॥ आणिमा आदि गुणोंके द्वारा ' दीव्यन्ति ' अर्थात् क्रीडा करते हैं वे देव कहलाते हैं । जो मनसे उत्कट होते हैं वे मानुष कहलाते हैं । जो ' तिर: ' अर्थात् कुटिलताको प्राप्त होते हैं, वे तिच कहलाते हैं । जो रमते नहीं हैं वे नारक कहलाते हैं । इनकी अपने अनुकुल जो प्रकृति होती है वह सब नोआगमभावप्रकृति है । यह सूत्र यतः देशामर्शक है, अतः जो कोई जीवभाव हैं और कर्म से रहित जितने अजीव भाव हैं वे सब यहांपर कहने चाहिए। इस प्रकार नोआगमभावप्रकृति के साथ भावप्रकृति समाप्त हुई । इन प्रकृतियोंमें किस प्रकृतिका प्रकरण है ? कर्मप्रकृतिका प्रकरण है । १४१ । यह उपसंहारका आलम्बन लेकर कहा है । अनुपसंहारका आश्रय करनेपर तो नोआगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमभावप्रकृतिका भी अधिकार है, क्योंकि, वहां दोनोंका विस्तारसे कथन किया है । इस प्रकार प्रकृतिनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Jain Education International शेष कथन वेदना अनुयोगद्वारके समान है । १४२ । शेष अनुयोगद्वारोंकी जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें प्ररूपणा की है उसी प्रकार यहां भी करनी चाहिए । इस प्रकार प्रकृति नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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