Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 391
________________ ३५४ ) छक्खंडागमे वग्गणाखंड ( ५, ५, ८५. पयलापयला थीणगिद्धी णिहा य पयला य चक्खदसणावरणीयं अचक्खुदंसणावरणीयं ओहिदसणावरणीयं केवलदसणावरणीयं चेदि ॥ जिस्से पयडीए उदएण अइणिभरं सोवदि, अण्णेहि उट्ठाविज्जतो वि ण उट्टइ सा णिहाणिद्दा णाम । जिस्से उदएण ट्ठियो णिसण्णो वि सोवदि गहगहियो व सीसं धुणदि वायाहयलया व चदुसु वि दिसासु लोट्टदि सा पयलापयला णाम । जिस्से णिहाए उदएण तो वि थंभियो व णिच्चलो चिदि, द्वियो वि वइसदि, वइट्टओ वि णिवज्जदि, णिवष्णओ वि उट्टाविदो वि ण उदि, सुत्तओ चेव पंथे वहदि, कसदि लुणदिर परिवादि कुणदि सा थीणगिद्धी णाम । जिस्से पयडीए उदएण अद्धजगंतओ सोवदि, धूलोए भरिया इव लोयणा होंति, गुरुव*भारेणोलुद्धं व सिरमइभारियं होइ सा णिद्दा णाम । जिस्से पयडीए उदएण अद्धसुत्तस्स सीसं मणा मणा चलदि सा पयला णाम । सगसंवेयणविणासहेदुत्तादो एदाओ. पंचविहपयडीओ दंसगावरणीयं । “जं सामण्णं गहणं दसणं " एदेण सुत्तण* सह विरोहो किण्ण जायदे ? ण, जीको सामण्णं णाम, तस्स गहणं दसणं ति सिद्धीदो। निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलदर्शनावरणीय ।। ८५ ॥ जिस प्रकृतिके उदयसे अतिनिर्भर होकर सोता है और दूसरोंके द्वारा उठाये जानेपर भी नहीं उठता है वह निद्रानिद्रा प्रकृति है । जिसके उदयसे स्थित व निषण्ण अर्थात् बैठा हआ भी सो जाता है. भतसे गहीत हएके समान शिर धनता है, तथा वायसे आहत लताके समान चारों ही दिशाओंमें लोटता है वह प्रचलाप्रचला प्रकृति है । जिस निद्राके उदयसे जाता हुआ भी स्तम्भित किये गयेके समान निश्चल खडा रहता है, खडाखडा भी बैठ जाता है, बैठकर भी पड जाता है, पड़ा हुआ भी उठानेपर भी नहीं उठता है, सोता हुआ ही मार्गमें चलता है, मारता हैं, काटता है, और बडबडाता है; वह स्त्यानगृद्धि प्रकृति है । जिस प्रकृतिके उदयसे आधा जगता हुआ सोता है, धूलिसे भरे हुएके समान नेत्र हो जाते हैं, और गुरु भारको उठाये हुएके समान शिर अतिभारी हो जाता है वह निद्रा प्रकृति है । जिस प्रकृतिके उदयसे आधे सोते हुएका शिर थोडा थोडा हिलता रहता है वह प्रचलता प्रकृति है। स्वसंवेदनके विनाशमें कारण होनेसे ये पांचों ही प्रकृतियां दर्शनावरणीय हैं। शंका-- 'जं सामण्णं गहणं दसणं-' इस सूत्रके साथ उक्त कथनका विरोध क्यों नहीं होता है ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, यहां जीव सामान्य रूप है। इसीलिये उसका ग्रहण दर्शन है, यह सिद्ध ही है। ४ षट्खं. जी. च. १, १५-१६. काप्रती 'हणदि ' इति पाठ: 1 अ-आप्रत्योः 'गरुव ' इति पाठः1 ताप्रती ' हेदुत्तादो। एदाओ ' इति पाठः1 * सामण्णग्गहणं दसणमेयं विसेसियं णाणं । दोण्हं वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ll सं. सू. २-१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org...

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