Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 392
________________ पयडिअणुओगद्दारे दसणावरणपयडिपरूवणा ( ३५५ कधं जीवो सामगं? ण, इदं चेवत्थं जाणवि ति णियमाभावादो, राग-दोस-मोहाभावादो वा जीवस्स समाणत्तसिद्धीवो एदासिपंचग्णं पयडीणं बहिरंगंतरंगत्थगहणपडिकूलाणंक, दसणावरणसण्णा, दोण्णमावारयाणमेगावारयत्तविरोहादो? ण, एदाओ पंच वि पयडीयो दसणावरणीयं चेव, सगसंवेयणविणासकरणादो। बहिरंगत्थगहणाभावो वि तत्तो चेव होदि त्तिण वोत्तुं जुत्तं, दंसणाभावेण तस्विणासादो। किमळं दसणाभावेण णाणाभावो? णिद्दाए विणासिदबज्झत्थगहणजगणसत्तित्तादो। न च तज्जणणसत्ती गाणं तिस्से दंसणप्पयजीवत्तादो। चक्खुविण्णाणप्पायगकारणं सगसंवेयणं चक्खुदंसणं णाम। तस्सावारयं कम्मं चक्खुदंसणावरणीय । सोद-घाण-जिम्मा फास-मणेहितो समुप्पज्जमाणणाणकारणसगसंवेयणमचक्खुदंसणं णाम । तस्स आवारयं अचक्खुदंसणावरणीयं । परमाणुआदि महक्खंधतंपोग्गलवम्वविसयओहिणाणकारणसगसंवेयणं ओहिदसणं । तस्स आवारयं ओहिदसणावरणीयं। केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसंवेयणं केवलदंसपं णाम। तस्स आवारयं शंका - जीव सामान्य रूप कैसे हो सकता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि इसी अर्थको जानता है, ऐसा कोई नियम नहीं । अथवा राग द्वेष और मोहसे रहित होनेके कारण जीवके समानता सिद्ध है ।। शंका - ये पांचो ही प्रकृतियां बहिरंग ओर अन्तरंग दोनोंही प्रकारके अर्थके ग्रहणमें बाधक हैं, इसलिए इनकी दर्शनावरण संज्ञा कैसे हो सकती है। क्योंकि, दोनोंका आवरण करनेवालोंका एकका आवरण करनेवाला मानने में विरोध आता है ? . ___समाधान - नहीं, ये पांचो ही प्रकृतियां दर्शनावरणीय ही हैं, क्योंकि, वे स्वसंवेदनका विनाश करती हैं। - बहिरंग अर्थके ग्रहणका अभाव भी तो उन्हींसे होता है ? समाधान - ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसका विनाश दर्शनके अभावसे होता है । शंका - दर्शनका अभाव होनेसे ज्ञान का अभाव क्यों होता है ? समाधान - कारण कि निद्रा बाह्य अर्थके ग्रहणको उत्पन्न करनेवाली शक्तिकी विनाशक है। और बाह्यार्थग्रहणको उत्पन्न करनेवाली यह शक्ति ज्ञान तो हो नहीं सकती, क्योंकि, वह दर्शनात्मक जीव स्वरूप है । चाक्षुष विज्ञानको उत्पन्न करनेवाला जो स्वसंवेदन है वह चक्षुदर्शन और उसका आवारक कर्म चक्षुदर्शनावरणीय कहलाता है। श्रोत्र , घ्राण, जिव्हा स्पर्शन और मनके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अचक्षुदर्शन और इसके आवारक कर्मका नाम अचक्षुदर्शनावरणीय है । परमाणुसे लेकर महास्कन्ध पर्यंत पुद्गल द्रव्यको विषय करनेवाले अवधिज्ञानके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम अवधिदर्शन है और इसके आवारक कर्मका नाम अवधिदर्शनावरणीय हैं । केवलज्ञानकी उत्पत्तिके कारणभूत स्वसंवेदनका नाम केवलदर्शन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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