Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ५, ५, ८४.) पयडिअणुओगद्दारे दसणावरणपयडिणपरूवणा अदिवियत्तं ववहाणादिणिवट्टणं च सूचेदि, अण्णहा समग्गहणाणुववत्तीदो। संशय विप य॑यानध्यवसायाभावतस्त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायग्रहणाद्वा सम्यग् जानाति* भगवान् केवली । अशेषबाहयार्थग्रहणे सत्यपि न केवलिनः सर्वज्ञता, स्वरूपपरिच्छित्त्यभावादित्युक्ते आह- 'पस्सदि' त्रिकालगोचरानन्तपर्यायोपचितमात्मानं च पश्यति । केवलज्ञानोत्पत्त्यनन्तरं कृत्स्नकर्मक्षये सति स्तिनोरुपदेशाभावात् तीर्थाभाव इत्युक्ते आह- 'विहरदित्ति' चतुर्णामघातिकर्मणां सत्त्वात् देशोनां पूर्वकोटी विहरतीति । केवलणाणं ।। ८३॥ एवंगणविसिट्ठ केवलणाणं होदि । कधं गुणस्स गणा होंति ? केवलणाणेण केवलिणिसादो। एवं विहो केवली होवि त्ति भणिदं होदि । एवं केवलणाणावरणीयकम्मस्स परूवणा कदा होदि। दसणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ? ।। ८४॥ सुग। दसणावरणीयस्स कम्मस्स: णव पयडीओ---णिहाणिद्दा अतीन्द्रिय है और व्यवधानादिसे रहित है, इस बातको सूचित करता है; अन्यथा सब पदार्थोंका युगपत् ग्रहण करना नहीं बन सकता । संशय, विपर्यय और अनध्यवसायका अभाव होनेसे अथवा त्रिकालगोचर समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायोंका ग्रहण होनेसे केवली भगवान् सम्यक् प्रकारसे जानते हैं। केवली द्वारा अशेष बाह्य पदार्थों का ग्रहण होनेपर भी उनका सर्वज्ञ होना सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके स्वरूपपरिच्छित्ति अर्थात् स्वसंवेदनका अभाव है; ऐसी आशंकाके होनेपर सूत्र में पश्यति' कहा है । अर्थात् वे त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित आत्माको भी देखते हैं। केवलज्ञानकी उत्पत्ति होने के बाद सब कर्मोका क्षय हो जानेपर शरीररहित हुए केवली उपदेश नहीं दे सकते, इसलिए तीर्थका अभाव प्राप्त होता है; ऐसा कहनेपर सूत्रमें 'विहरदि' कहा है । अर्थात् चार अधाति कर्मोंका सत्त्व होनेसे वे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करते हैं। ऐसा केवलज्ञान होता है ।। ८३ ॥ इस प्रकारके गुणोंवाला केवलज्ञान होता है । शंका - गुणमें गुण कैसे हो सकते हैं ? समाधान - यहां केवलज्ञानके द्वारा केवलज्ञानीका निर्देश किया गया है । इस प्रकारके केवली होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार केवलज्ञानावरणीय कर्मका कथन किया। दर्शनावरणीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं ? ॥ ८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतियां हैं- निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि * प्रतिषु 'जानातीति ' इति पाठ:1 . काप्रती · जानातीति भगवान् केवलिनः ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458