Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 388
________________ ५, ५, ८२. ) पयडिअणुओगद्दारे केवलणाणपरूवणा ( ३५१ बीइंदिया तीइंदिया चारिदिया पंचिदिया चेदि । चिदिया दुविहा सणिणो असण्णिणो चेदि । एदे सव्वे तसा दुविहा पज्जत्तापज्जत्तभेएण। अपज्जत्ता दुविहा लद्धिअपज्जत्त-णिवत्तिअपज्जत्तभेएण। थावरा पंचविहा- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणप्फदिकाइया चेदि । एदे पंच वि थावरकाया पादेक्कं दुविहा बादरा सुहमा चेदि। तत्थ बादरवणप्फदिकाइया दुविहा पत्तेयसरीरा साहारणसरीरा चेदि। एत्थ पत्तेयसरीरा दुविहा बादरणिगोदपदिट्टिदा बादरणिगोदअपदिट्टिदा चेदि । एदे थावरकाया सम्वे वि पादेक्कं दुविहा पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि । अपज्जत्ता दुविहा लद्धिअपज्जत्ता णिव्वत्तिअपज्जत्ता चेदि। तत्थ वणप्फदिकाइया अणंतवियप्पा, सेसा असंखेज्जवियप्पा । एदे सव्वजीवे सव्वलोगट्टिदे जाणदि ति भणिदं होदि। भावा णवविहा जीवाजीव-पुण्ण पाव-आसव संवर-णिज्जरा-बंधमोक्खभेएण। तत्थ जीवा परूविदा। अजीवा दुविहा मुत्ता अमुत्ता चेदि । तत्थ मुत्ता एगणवीसदिविधा । तं जहा-- एयपदेसियवग्गणा संखेज्जपदेसियवग्गणा असंखेज्जपदेसियवग्गणा अणंतपदेसियवग्गणा आहारवग्गणा अगहणवग्गणा तेजइयसरीरवग्गणा अगहणवग्गणा भासावग्गणा अगहणवग्गणा मणोवग्गणा अगहणवग्गणा कम्मइयवग्गणा धवखंधवग्गणा सांतर-णिरंतरवग्गणा धुवसुग्णवग्गणा पत्तेयसरीरवग्गणा धुवसुण्णवग्गणा बादरणिगोदवग्गणा धवसुण्णवग्गणा सुहमणिगोदवग्गणा धुवसुण्णवग्गणा महाखंधवग्गणा चेदि । एत्थ तेवीसवग्गणासु चदुसु धुवसुण्णत्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकारके हैं- संज्ञी और असंज्ञी । ये सब स जीव पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके हैं । अपर्याप्त जीव लब्ध्यपर्याप्त और निर्वत्त्यपर्याप्तके भेदसे दो प्रकारके हैं। स्थावर जीव पांच प्रकारके हैं- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक । इन पांचों ही स्थावरकायिक जीवोंमें प्रत्येक दो प्रकारके है- बादर और सूक्ष्म । इनमें बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके है-- प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर। यहां प्रत्येकशरीर जीव दो प्रकारके हैं-- बादरनिगोदप्रतिष्ठित और बादरनिगोदअप्रतिष्ठित । ये सब स्थावरकायिक जीव भी प्रत्येक दो प्रकारके हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त दो प्रकारके हैं- लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्त्य-- पर्याप्त । इनमेंसे वनस्पतिकायिक अनन्त प्रकारके और शेष असंख्यात प्रकारके हैं। केवली भगवान् समस्त लोकमें स्थित इन सब जीवोंको जानते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जीव, अजीव. पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षके भेदसे पदार्थ नौ प्रकारके हैं। उनमेंसे जीवोंका कथन कर आये हैं। अजीव दो प्रकारके हैं- मूर्त और अमूर्त । इनमेंसे मूर्त पुद्गल उन्नीस प्रकारके हैं । यथा- एकप्रदेशी वर्गणा, संख्यातप्रदेशी वर्गणा, असंख्यातप्रदेशी वर्गणा, अनंतप्रदेशी वर्गणा, आहारवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, तैजसशरीरवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्रहणवर्गणा, मनोवर्गणा, अग्रहणवर्गणा, कार्मणशरीरवर्गणा, ध्रुवस्कन्धवर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गगा, ध्रुवशून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा और महास्कन्धवर्गणा। इन तेईस वर्गणाओंमेंसे चार द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । त. सू. २, १४. * पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः स्थावरा: 1 त. सू. २, १३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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