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छक्खंडागमे वग्गणा - खंड
(५,५, ८२.
वा मणो वच्चदे | मणसा चिन्तिदट्ठा माणसिया । ते वि जाणदि । रज्ज- महत्वयादिपरिपालणं भुत्ती णाम । तं भुत्तं जाणदि । जं किचि तिसु वि कालेसु अण्णत्तो froणं तं कदं णाम । पंचहि इंदिएहि तिसु वि कालेस जं सेविदं तं पडिसेविदं णाम । आद्यं कर्म्म आदियम्मं णाम । अत्थ- वंजणपज्जायभावेण सव्वेसि दव्वाणमादि जाणदिति भणिदं होदि । रहः अन्तरम्, अरहः अनन्तरम्, अरहः कर्म्म अरहस्कर्म ; तं जानाति । सुद्धदव्वट्ठियणयरिसएण सम्बेसि दव्वाणमणादित्तं जाणदि त्ति भणिदं होदि । सर्वस्मिन् लोके सर्वजीवान् सर्वभावांश्च जानाति ।
सव्वजीवग्गहणं ण कायव्वं, बद्ध मुत्ते हि गयत्थत्तादो ? ण, एगसंखाविसिट्ठबद्धमुक्कगहणं मा तत्थ होहदित्ति तप्पडिसेहट्ठ सव्वजीवणिद्देसादो। जीवा दुविहा- संसारिणो मुत्ता चेदि । तत्थ मुत्ता अणंतवियप्पा, सिद्धलोगस्स आदि अंताभावादो । कुदो तदभावो ? पवाहसरूवेणाणुवत्तीएटी सव्वा सिद्धा सेहणं पडि सादिया, संताणं पडि अनादिया "त्ति सुत्तादो। संसारिणो दुविहा तसा थावरा चेदि । तसा चउविहा
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कहते हैं | मनसे चिन्तित पदार्थोंका नाम मानसिक है । उन्हें भी जानते हैं। राज्य और महाव्रतादिका परिपालन करनेका नाम भुक्ति है । उस भुक्तको जानते हैं । जो कुछ तीनों ही कालों में अन्यके द्वारा निष्पन्न होता है उसका नाम कृत है । पांचों इन्द्रियोंके द्वारा तीनों ही कालों में जो सेवित होता है उसका नाम प्रतिसेवित है । आद्य कर्मका नाम आदिकर्म है । अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय रूपसे सब द्रव्योंकी आदिको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं । रहस् शब्दका अर्थ अन्तर और अरहस् शब्दका अर्थ अनन्तर है । अरहस् ऐसा जो कर्म वह अरहःकर्म कहलाता है । उसको जानते हैं । शुद्ध द्रव्याथिक नयके विषय रूपसे सब द्रव्योंकी अनादिताको जानतें हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । सम्पूर्ण लोकमें सब जीवों और सब भावोंको जानते हैं ।
शंका- - यहां 'सर्व जीव ' पदको ग्रहण नहीं करना चाहिए, क्योंकि, बद्ध और मुक्त पदके द्वारा उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है ?
पदका निर्देश किया है ।
समाधान नहीं, क्योंकि एक संख्या विशिष्ट बद्ध और मुक्तका ग्रहण वहांपर न होवे, इसलिए इसका प्रतिषेध करनेके लिए ' सर्व जीव जीव दो प्रकार के हैं -- संसारी और मुक्त । क्योंकि, सिद्धलोकका आदि और अन्त नहीं पाया जाता । शंका-- सिद्ध लोकके आदि और अन्तका अभाव कैसे है ?
इनमें मुक्त जीव अनन्त प्रकारके हैं,
समाधान -- क्योंकि, उसकी प्रवाह स्वरूपसे अनुवृत्ति हैं, तथा 'सब सिद्ध जीव सिद्धिकी अपेक्षा सादि हैं और सन्तानकी अपेक्षा अनादि है, ' ऐसा सूत्रवचन भी है ।
संसारी जीव दो प्रकारके हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव चार प्रकारके हैं- द्वीन्द्रियः
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ॐ काप्रती ' अरहा' इति पाठ: ताप्रतो 'रहस्कर्म ' इति पाठ 1 संसारिणो मुक्ताश्च 1 त. सु. २, १०, Q अप्रतौ ' ऽणणवत्तीए' इति पाठः । Xx संसारिणस्त्र संस्थावरा त. सू. २, १२.
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