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३५६) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ५, ८६. केवलदसणावरणीयं । कि च- छमत्थणाणाणि सणवाणि, केवलणाणं पुण केवलदं. सणसमकालभावी, णिरावरणतादो। सुद-मणपज्जवदंसणाणि किण्ण सुत्ते परविदाणि? ण, तेसि मदिणाणपुव्वाणं सणपुव्वत्त विरोहादो। विहंगदंसणं किण्ण परूविदं ? ण, तस्स ओहिदसणे अंतब्भावादो । तथा सिद्धिविनिश्चयेऽप्युक्तम्- "अवधिविभंगयोरवधिदर्शनमेव" इति । चक्ख-अचक्ख-ओहिदसणाणमेत्थ वियप्पा किण्ण परविदा? ण, णाणभेदे अवगदे तक्कारणभेदो वि अवगदो चेवे त्ति तप्परूवणाकरणादो।
एवडियाओ पयडीओ॥ ८६ ॥ जेण कारणेण सणावरणीयस्स अवराओ पयडीओ ण संभवंति तेण एवडियाओ णव चेव पयडीओ होति त्ति भणिदं ।
वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओं पयडीओ? ॥ ८७॥ सुगममेदं ।
वेयणीयस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ-सादावेदणीयं चेव असादावेवणीयं चेवः । एवडियाओ पयडीओ ।। ८८॥ उसके आवारक कमका नाम केवलदर्शनावरणीय है । इतनी विशेषता है कि छद्मस्थोंके ज्ञान दर्शनपूर्वक होते हैं, परन्तु केवलज्ञान केवलदर्शनके समान कालमें होता है; क्योंकि ज्ञान और दर्शन ये दोनो निरावरण हैं।
शंका - सूत्र में श्रुतदर्शन और मनःपर्ययदर्शन क्यों नहीं कहे गये हैं ?
समाधान - नहीं, क्योंकि वे ( श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान ) मतिज्ञानपूर्वक होते हैं, इसलिए उनको दर्शनपूर्वक मानने में विरोध आता है।
शंका- विभंगदर्शन क्यों नहीं कहा है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि उसका अवधिदर्शनमें अन्तर्भाव हो जाता है। ऐसा ही सिद्धिविनिश्चयमें भी कहा गया है- ' अवधिज्ञान और विभंगज्ञानके अवधिदर्शन ही होता है।
शंका - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिज्ञानदर्शनके यहां भेद क्यों नहीं कहे ?
समाधान - नहीं, क्योंकि, ज्ञानके भेदोंके ज्ञात हो जानेपर उनके कारणोंके भेदोंका भी ज्ञान हो ही जाता है, इसलिए उनका कथन नही किया है।
इतनी ही प्रकृतियां होती हैं। ८६ ।
जिस कारणसे दर्शनावरणीय कर्मकी अन्य प्रकृतियां सम्भव नहीं हैं, इसलिए ये नौ ही प्रकृतियां होती हैं, ऐसा कहा है।
वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां होती हैं ? । ८७ । यह सूत्र सुगम है ।
वेदनीय कर्मकी दो प्रकृतियां हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । इतनी ही प्रकृतियां होती हैं । ८८।
प्रतिषु ' पुव्वुत्त ' इति पाठ 1 * षट्वं. जी. चू १, १७-१८.
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