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५, ५, ९४. ) पयडिअणुओगद्दारे मोहणीयपयडिपरूवणा ( ३५९ कम्मरस सम्मत्तववएसो ? सम्मत्तसहचारादो। सम्मत्त-मिच्छत्तभावाणं संजोगसमुन्भदभावस्स उप्पाययं कम्मं सम्मामिच्छत्तं णाम । कधं दोणं विरुद्धागं भावाणमक्कमेण एयजीवदव्वम्हि वृत्ती ? ण,* दोण्णं संजोगस्स कथंचि जन्चंतररस कम्मट्ठवणस्सेव ( ? ) वृत्तिविरोहाभावादो। अत्तागम-पयत्थेसु असद्धप्पाययं कम्म मिच्छत्तं णाम । एवं दसणमोहणीयं कम्म तिविहं होदि ।
____जंतं चरित्तमोहणीयं कम्मं तं दुविहं कसायवेवणीयं णोकसायवेयणीयं चेव ॥ ९४ ।।
जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्म कसायवेयणीयं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण जीवो गोकसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम । सुख-दुःख-सस्यकर्म-क्षेत्रं कृषन्तीति कषायाः। ईषत्कषायाः नोकषायाः । केन नोकषायाणामीषत्वम् ? स्थितिबन्धेन अनुभवबन्धेन च । कि च-कषायानोकषायाः अल्पाः, क्षपकश्रेण्यां नोकषायोदये विनष्टे सति पश्चात् कषायोदयविनाशात् णोकसायोदयअणुबंधकालं पेखिदूण
शंका - इस कर्मकी सम्यक्त्व संज्ञा कैसे है ? समाधान - सम्यक्त्वका सहचारी होनेसे ।
सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप दोनों भावोंके संयोगसे उत्पन्न हुए भावका उत्पादक कर्म सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है ।
शंका – सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप इन दो विरुद्ध भावोंकी एक जीव द्रव्यमें एक साथ वृत्ति कैसे हो सकती है ?
___ समाधान - नहीं, क्योंकि ( ? ) के समान उक्त दोनों भावोंके कथंचित् जात्यन्तरभूत संयोगके होने में कोई विरोध नहीं है।
आप्त, आगम और पदार्थोंमें अश्रद्धाको उत्पन्न करनेवाला कर्म मिथ्यात्व कहलाता है। इस प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकारका है।
जो चरित्रमोहनीय कर्म है वह दो प्रकारका है-- कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय ॥ ९४ ॥
जिस कर्मके उदयसे जीव कषायका वेदन करता है वह कषायवेदनीय कर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीव नोकषायका वेदन करता है वह नोकषायवेदनीय कर्म है। सुख और दुःख रूपी धान्यको उत्पन्न करनेवाले कर्मरूपी क्षेत्रको जो कृषते हैं अर्थात् जोतते हैं वे कषाय हैं। ईषत् कषायोंको नोकषाय कहा जाता है।
शंका - नोकषायोंमें अल्परूपता किस कारणसे है ?
समाधान - स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धकी अपेक्षा उनमें अल्परूपता है । तथा कषायोंसे नोकषाय अल्प हैं, क्योंकि, क्षपकश्रेणिमें नोकषायोंके उदयका अभाव हो जानेपर
ताप्रती 'समुद्भूद- ' इति पाठ.1 * अ-आ-काप्रतिष ण ' इति नास्ति * काप्रती 'कवरवणस्सेव 'ताप्रती · कल्पट्ठरवणस्सेव ' इति पाठ: 1 * अ-आ-काप्रतिषु ' असदुप्पाययं ' इति पाठः [ ५ षट्खं. जी. चू. १. २२.
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