Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 406
________________ ५, ५, १०९. ) पर्या अणुओगद्दारे णामपय डिपरूवणा ( ३६९ वामनशरीरस्य संस्थानं वामनशरीरसंस्थानम् । हृस्वशाखं वामनशरीरम् । एतस्य कारणकर्मणोप्येषैव संज्ञा । विषमपाषाणभृतदृतिवत् समन्ततो विषमं हुण्डम्, हुंडं च तत् शरीरसंस्थानं हुंडसरीरसंस्थानम् । एतस्य कारणकर्मणोप्येषैव संज्ञा । जं तं मरीरअंगोवंगणामं तं तिविहं- ओरालियसरीर अंगोवंगणामं वेडव्वियसरीरअंगोवंगणामं आहारसरीरअंगोवंगणामं चेदि * ॥ सुगममेदं । जं तं सरीरसंघडणणामं तं छव्विहं- वज्जरि सहवइरणारायणसरीरसंघडणणामं वज्जणारायणसरीरसंघडणणामं णारायण* सरीरसंघडणणामं अद्धणारायणसरीरसंघडणणामं खीलियसरीरसंघडण - णामं असंपत्तसेवट्टसरीरसंघडणणामं चेवि ।। १०९ ।। वज्रमिव वज्रम्, वज्रऋषभः वज्रनाराचश्च वज्रर्षभवज्रनाराचौ, तो एब शरीरसंहननं वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहननम् वज्राकारेण स्थितास्थिः वेष्टकः ऋषभः तौ भित्वा स्थितं वज्रकीलकं वज्रनाराचं । ऋषभवज्ररहितं वज्रनाराचशरीर हों वह वामनशरीर हैं । उसका कारण जो कम है उसकी भी यही संज्ञा है । विषम पाषाणोंसे भरी हुई मशकके समान जो सब ओरसे विषम होता है वह हुण्ड कहलाता है, हुण्ड ऐसा जो शरीरसंस्थान वह हुण्डशरीरसंस्थान हैं । इसके कारणभूत कर्मकी भी यही संज्ञा है ! जो शरीरआंगोपांग नामकर्म है वह तीन प्रकारका है- औदारिकशरीरआंगोपांग, वैक्रियिकशरीरआंगोपांग और आहारकशरीरआंगोपांग नामकर्म । १०८ । यह सूत्र सुगम है । जो शरीरसंहनन नामकर्म है वह छह प्रकारका है- वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन, वज्रनाराचशरीरसंहनन, नाराचशरीरसंहनन, अर्धनाराचशरीरसंहनन, कीलितशरीरसंहनन और असंप्राप्तसेवार्तशरीरसंहनन नामकर्म ॥ १०९ ॥ जो वज्र के समान होता है यह वज्र कहलाता है । वज्रऋषभ और वज्रनाराच, इस प्रकार यहां द्वन्द्व समास है । इन दोनों रूप जो शरीरसंहनन है यह वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन कहलाता है । वज्ररूपसे स्थित हड्डी और ऋषभ अर्थात् वेष्टन इन दोनोंको भेद कर जिसमें वज्रमय कीलें स्थित हैं वह वज्रऋषभवज्रनाराचशरीरसंहनन है । जिसमें वज्रमय नाराच हों, पर ऋषभ वज्र रहित हो वह वज्रनाराचशरीरसंहनन है । इन दोनोंके विना जो शरीरसंहनन होता है अ आ-काप्रतिषु दद्यशाख, तापतो 'दह्यशाखं ' इति पाठ: 1 तातो' पाषाणभृतदृतिवत्' इति पाठ | षट्सं. जी. चू. १, ३५. ताप्रती 'णाराइण' इति पाठ: 1 षट्खं. जी. चू. १, ३६. 2) काप्रती ' वज्रऋषभ ' इति पाठः । अ आ-काप्रतिषु ' नाराचाः त एव'. तातो' नाराचः त एव ' इति पाठ: 1 * काप्रतो 'तो' इति पाठः । लकवज्रनाराचऋषभ रहितं ताप्रती 'वज्रकीलक ( ) वज्रनाराच (:) ॠषभरहितं ' इति पाठ: 1 अ-आ-ताप्रतिषु 'वज्रकी For Private & Personal Use Only Jain Education International " www.jainelibrary.org

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