Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 412
________________ ५, ५, ११७. ) पयडिअणुओगद्दारे णामपयडिपरूवणा (३७५ च भिण्णकज्जं कुगमाणाणं सत्ती समाणा, बिरोहादो। ण च सत्तिभेदे संते वत्थुस्स अभेदो अत्थि, अव्ववत्थापसंगादो । एवं पादेक्कं सवोगाहणावियप्पेसु सूचीअंगुलस्स असंखेज्जदिभागगणिदरज्जुपदरमेत्ता णिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पा वत्तव्वा । एवं लभंति त्ति कादूण सित्थमच्छोगाहणं महामच्छोगाहणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि जहण्णोगाहणवियप्पट्टमेगरूवे पक्खित्तं सेडीए असंखेज्जदिमागमेत्ता ओगाहणवियप्पा होति संखेज्जघणंगुलेसु वि सेडीए असंखेज्जविभागो ति संववहारुवलंभादो । पुणो जदि एगोगाहणवियप्पस्स अंगलस्स असंखेज्जविभागेण गणिदतिरियपदरमेत्ता णिरयगदिपाओग्गाणुपुस्विवियप्पा लब्भंति तो संखेज्जघणंगलमेत्तोगाहणवियप्पाणं केवडिए गिरयगइपाओग्गाणपुग्विवियप्पे लभामो त्ति संखेज्जघणंगुलेहि सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ततिरियपदरेसु गणिदेसु जावदिया आगासपदेसा तावदिया चेव गिरयगइपाओग्गाणुपुव्वीए उत्तरोत्तरपयडीओ होति ।। तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविणामाए केवडियाओ पयडीओ ?॥ सुगममेदं । । तिरिक्खगइपाओग्गाणुपुविणामाए पयडीयो लोओ सेडीएक कार्योंको करनेवालोंकी शक्ति समान होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है। शक्तिभेदके होनेपर भी वस्तुमें भेद नहीं होता, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा मानने में अव्यवस्थाका प्रसंग आता है। इस तरह पृथक् पृथक् सब अवगाहनाविकल्पोंमें नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीके सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित राजप्रतर प्रमाण विकल्प कहने चाहिए । वे इस तरहसे प्राप्त होते हैं, ऐसा समझकर सिक्थ मत्स्यकी अवगाहनाको महामत्स्यकी अवगाहनामेंसे घटाकर जो शेष रहे उसमें जघन्य अवगाहनाके विकल्पकी अपेक्षा एक मिलानेपर श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाविकल्प होते है, क्योंकि, संख्यात घनांगलोंमें भी श्रेणिके असंख्यातवें भागरूप संख्याका व्यवहार होता हुआ देखा जाता है। पुनः यदि एक अवगाहनाके विकल्पकी अपेक्षा नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी के विकल्प अंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित तिर्यप्रतर प्रमाण प्राप्त होते हैं तो संख्यात घनांगुल मात्र अवगाहनाविकल्पोंके कितने नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वीविकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार संख्यात घनांगुलोंसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यप्रतरोंको गुणित करनेपर जितने आकाशप्रदेश होते है उतनी ही नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी की उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ होती है । तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वोकी कितनी प्रकृतियां होती हैं ? ॥ ११७ ॥ यह सूत्र सुगम है। तिर्यग्गतिप्रायोग्यानपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियां लोकको जगश्रेणिके असंख्यातवें @ काप्रती — पयडीओ ताओ सेडीए' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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