Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 394
________________ ५,५,९१. ) अणुओगद्दारे मोहणीयपयडिपरूवणा ( ३५७ सत् सुखम्, सदेव सातम्, यथा पंडुरमेव पांडुरं । सातं वेदयतीति सातवेदनीयं, दुक्खपडिकार हेदुदव्वसंपादयं दुक्खुप्पायणकम्मदव्वसत्तिविणासयं च कम्मं सादावेदणीयं णाम । जीवस्त सुहसहावस्स दुक्खुप्पाययं दुक्खपसमण हे दुदव्वाणमवसारयं च कम्ममसादावेदणीयं णाम । एवं दो चेव पयडीओ । अण्णाणं पि दुक्खुप्पादिदिति तस्स वि असादावेदणीयत्तं किण्ण पसज्जदे ? ण, अणियमेण दुक्खुप्पाग्रयस्स असादत्ते संते खग्ग-मोग्गरादीणं पि असादावेदणीय तप्पसंगादो । मोहणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ ८९ ॥ गमं । मोहणीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ ।। ९० ।। एवं संगहणयविसयसुत्तं सुगमं । संपहि पज्जवट्टियणयाणुग्गहट्टमुत्तरसुत्तं भणदि - तं च मोहणीयं दुविहं दंसणमोहणीयं चेव चरित्तमोहणीयं चेव ।। ९१ ।। मोहयतीति मोहणीयं कम्मदव्वं । अत्तागम पयत्थेषु पच्चओ हुई सद्धा पासो च सत्' का अर्थ सुख है, इसका ही यहां सात शब्दसे ग्रहण किया गया है; जैसे कि पण्डुरको पाण्डुर शब्दसे भी ग्रहग किया जाता है । सातका जो वेदन कराती है वह सातावेदनीय प्रकृति है । दुःखके प्रतीकार करने में कारणभूत सामग्रीका मिलानेवाला और दुःखके उत्पादक कर्मद्रव्यकी शक्तिका विनाश करनेवाला कर्म सातावेदनीय कहलाता है । सुख स्वभाववाले जीवको दुःखका उत्पन्न करनेवाला और दुःखके प्रशमन करनेमें कारणभूत द्रव्योंका अपसारक कर्म असातावेदनीय कहा जाता है। इस प्रकार वेदनीयकी दो ही प्रकृतियां हैं । शंका-- अज्ञान भी तो दुःखका उत्पादक देखा जाता है, इसलिये उसे भी असातावेदनीय क्यों न माना जाय ? " समाधान- नहीं, क्योंकि अनियमसे दुःखके उत्पादकको असातावेदनीय मान लेने पर तलवार और मुद्गर आदिको भी असातावेदनीय मानना पडेगा । मोहनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियां हैं? ॥ ८९ ॥ यह सूत्र सुगम है । मोहनीय कर्मको अट्ठाईस प्रकृतियां हैं ॥ ९० ॥ यह संग्रहनयको विषय करनेवाला सूत्र सुगम है । अब पर्यायार्थिक नयवाले जीवोंका अनुग्रह करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-वह मोहनीय कर्म दो प्रकारका है- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय । ९१ | जो मोहित करता है वह मोहनीय नामक कर्मद्रव्य है । आप्त, आगम और पदार्थों में जो अ-आ-प्रत्यो: ' वेदनायतीति', काप्रतौ ' वेदणायतीति', ताप्रतौ ' वेदणीयतीति ' पाठ: । का-ताप्रत्यो: ' संपातयं इति पाठः । * ताप्रतौ ' दुक्खुपसण- इति पाठः । षट्खं. जी. चू. १, १९. ॐ षट्खं जी चू. १, २०. For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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