Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 401
________________ ३६४ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड ( ५, ५, १०१. कम्म सरीरणामं । जस्स कम्मस्स उदएण जीवेण संबद्धाणं वग्गणाणं अण्णोण्णं संबंधो होदि तं कम्म सरीरबंधणणामं । जस्स कम्मस्स उदएण अण्णोण्णसंबद्धाणं वग्गणाणं मट्टत्तं होदितं सरीरसंघावणामं*, अण्णहा तिलमोअओ व्व विसंतुल+ सरीर होज्ज। जस्स कम्मस्स उदएण समचउरससादिय-खुज्ज -वामण हुंड-णग्गोहपरिमंडलसंट्ठाणं सरीरं होज्ज तं सरीरसंठाणणामं । जस्स कम्मस्सुवएण अढण्णमंगाणमुवगाणं च जिप्फत्ती होवि तं अंगोगंगं णाम। जस्स कम्मस्स उदएण सरोरे हड्डणिप्पत्ती होदि तं सरीरसंघडणं णामं जस्स कम्मरस उदएण सरीरे वण्णणिप्पत्ती होवि तं वण्णणाम जस्स कम्मस्सुदएण दुविहगंधणिप्फत्ति होदि । तं गंधणामं । जस्स कम्मस्सदएण सरीरे रसहणिप्फत्ती होदि तं रसणामं । जस्स कम्मस्सुदएण सरीरे फास णिप्फत्ती होदि तं फासणामं । जस्स कम्मस्सुदएण परिचत्तपुव्वसरीरस्स अगहिदुत्तरसरीरस्स जीवपदेसाणं रचणापरिवाडी होदितं कम्ममाणुपुटवीणाम। जस्स कम्मस्सुद. एण जीवस्स सगसरीरं गुरु-लहुगभावविवज्जियं होदितं कम्मगुरुअलहुगं णाम । जस्स कम्मस्सुवरण सरीरमप्पणो चेव पीडं करेदि तं कम्ममुवघादं णाम, तस्स उदाहरणं दीह सिंग-तुंडोदरादओ। जस्स कम्मस्सुदएण सरीरं परपीडायरं होदितं परघावं णामांजस्स कम्मस्स उदएण उस्सास णिस्सासाणं णिप्फत्ती होदि तमुस्सासणामा जस्स कम्मस्सुदएण संबधको प्राप्त हुई वर्गणाओंका परस्पर संबंध होता है वह शरीरबन्धन नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे परस्पर संबंधको प्राप्त हुई वर्गणाओंमें मसृणता आती है वह शरीरसंघात नामकर्म है, इसके विना शरीर तिलके मोदकके समान विसंस्थुल ( अव्यवस्थित । हो जायगा । जिस कर्मके उदयसे समचतुरस्र, स्वाति, कुब्जक, वामन, हुंड और न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थानवाला शरीर होता है वह शरीरसंस्थान नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे आठ अगों और उपांगोंकी उत्पत्ति होती है वह आंगोपांग नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें हड्डियोंकी निष्पत्ति होती है वह शरीरसंहनन नामकर्म हैं । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें वर्णकी उत्पत्ति होती है वह बर्ण नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें दो प्रकारके गन्धकी उत्पत्ति होती है वह गन्ध नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे शरीरमें रसकी निष्पत्ति होती है वह रस नामकर्म है । जिस कर्मके उदयसे शरीरमें स्पर्शकी उत्पत्ति होती है वह स्पर्श नामकर्म है। जिस जीवने पूर्व शरीरको तो छोड दिया है, किन्तु उत्तर शरीरको अभी ग्रहण नहीं किया है उसके आत्मप्रदेशोंकी रचनापरिपाटी जिस कर्मके उदयसे होती है वह आनुपूर्वी नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे जीवका अपना शरीर गुरु और लघु भावसे रहित होता है वह अगुरुलघु नामकर्म हैं। जिस कर्मके उदयसे शरीर अपनेको ही पीडाकारी होता है वह उपघात नामकर्म है। इसका उदाहरण- जैसे दीर्घ सोंग, मुख और पेट आदिका होना । जिस कर्मके उदयसे शरीर दूसरोंको पीडा करनेवाला होता है वह परघात नामकर्म है। जिस कर्मके उदयसे उच्छ्वास और निश्वासकी उत्पत्ति होती है वह उच्छ्वास नामकर्म है। जिस अ-आ-काप्रतिषु ‘सरीरबंधण णाम इति पाठ.1 * अ-आ-काप्रतिष ' सरीरसंघाद णाम ' इति पाठ: 1 आप्रती — विसरुलं ., काप्रती' विसरलं , ताप्रती । विसंरुलं ' इति पाठ:1.काप्रती 'समचउरस्सादिखज्ज- इति पाठ:16अ-आ-काप्रतिषु '-संठाणं णाम ' इति पाठ:18 काप्रती '-संघडणं णाम, इति पाठः 1 5 का-ताप्रत्योः ‘-स्सुदएण रस' इति पाठ: 1 का-ताप्रत्योः 'स्सुदएण फास-' इति पाठः ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,

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