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३४६ ) छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
(५, ५, ८२. तरसपत्नं केवलज्ञानम् निर्मूलोन्मूलितस्वप्रतिपक्षघातिचतुष्कमिति यावत् । एवं केवलगाणं सयं चेव उप्पज्जवि त्ति जाणावणठें तन्विसयपरूवणळंच उत्तरसुत्तं भणदि
सई भयवं उप्पण्णणाणवरिसी सदेवासुर-माणुसस्स लोगस्स आगविं गदि चयणोववादं बंधं मोक्खं इड्ढि हिदि जुदि अणुभाग तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविवं आदिकम्मं अरहकम्म सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जागदि पस्सवि विहरद ति ॥ ८२ ॥
ज्ञानधर्ममाहात्म्यानि भगः, सोऽस्यास्तीति भगवान् । उत्पन्नज्ञानेन द्रष्टुं शीलमस्येत्युत्पन्नज्ञानदी, स्वयमुत्पन्नज्ञानदर्शी भगवान् सर्वलोकं जानाति । कथं ज्ञानस्य स्वयमत्पत्तिः ? न, कार्य-कारणयोरेकाधिकरणत्वतो भेदाभावात् । सौधर्मादयो देवाः, असुराश्च भवनवासिनः। देवासुरवचनं देशामर्शकमिति ज्योतिषां व्यंतराणां तिरश्चां च ग्रहणं कर्तव्यम् । सदेवासुरमानुषस्य लोकस्य आगति जानति । अण्णगदीदो इच्छिदगदीए आगमणमागदी गाम । इच्छिवगदीदो अण्णगदिगमणं गदी णाम । सोम्मिवादिदेवाणं सगसंपयादो विरहो चयण
घातिचतुष्कका समूल नाश कर दिया है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यह केवलज्ञान स्वयं ही उत्पन्न होता है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए और उसके विषयका कथन करने के लिए आगेका सूत्र कहते हैं
स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान् देवलोक और असुरलोक साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भक्त, कृत, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावोंको सम्यक् प्रकारसे युगपत् जानते हैं, देखते हैं और विहार करते हैं। ८२ ।
ज्ञान-धर्मके माहात्म्योंका नाम भग है, वह जिनके है वे भगवान् कहलाते हैं । उत्पन्न हुए ज्ञानके द्वारा देखना जिसका स्वभाव है उसे उत्पन्नज्ञानदर्शी कहते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञानदर्शन स्वभाववाले भगवान् सब लोकको जानते हैं।
शंका - ज्ञानकी उत्पत्ति स्वयं कैसे हो सकती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, कार्य और कारणका एकाधिकरण होनेसे इनमें कोई भेद नहीं है।
सौधर्मादिक देव, और भवनवासी असुर कहलाते हैं । यहां देवासुर वचन देशामर्शक है इसलिए इससे ज्योतिषी, व्यन्तर और तियंचोंका भी ग्रहण करना चाहिए। देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगतिको जानते हैं। अन्य गतिसे इच्छित गतिमें आना आगति है । इच्छित गतिसे अन्य गतिमें जाना गति है । सौधर्मादिक देवोंका अपनी सम्पदासे
७ म.नं. १, पृ. २७.
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