Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 381
________________ ३४४ ) (५,५, ७८. चित्तं ण जाणदि, सगखेत्तं तो ट्ठियसगविसयत्यस्स अणवगमाणुववत्तीदो। ण च एवं, खेत्तपमाणपरूवणाए विहलत्तावत्तदो । पणदालीसजोयणलक्खब्भंतरे ट्ठाइदूण चितयं जीवेहि चितिज्जमाणं दव्वं जदि मणपज्जयणाणपहाए ओदुध्दखे तब्भंतरे होदि तो जाद, अण्णा ण जागदित्ति भणिदं होदि । छक्खंडागमे वग्गणा-खंड तं सव्वं विउलमदिमणपज्जयणाणावरणीयं णाम कम्मं ॥ ७८ ॥ सुगममेदं, पुव्वं वृत्तत्यत्तादो । एवं मणपज्जयणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित अपने विषयभूत अर्थका अनवगम न नहीं सकता । परन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर क्षेत्र के प्रमाणकी प्ररूपणा निष्फल ठहरती है । इसलिए पैंतालीस लाख योजनके भीतर स्थित होकर चिन्तवन करनेवाले जीवोंके द्वारा विचार्यमाण द्रव्य यदि मन:पर्ययज्ञानकी प्रभासे अवष्टब्ध क्षेत्रके भीतर होता है तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता है; यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान कितने क्षेत्रके विषयको जानता है, इस बातका यहां विचार हो रहा है । सूत्रमें इतना ही कहा हैं कि मानुषोत्तर शैलके भीतर के विषयको जानता है, बाहरके विषयको नहीं जानता । वीरसेन स्वामी इसका यह व्याख्यान करते हैं कि यहां मानुषोत्तर शैल पद उपलक्षण है और इससे पैंतालीस लाख योजनका ग्रहण होता है । इसलिए पैंतालीस लाख योजनके भीतर जो भी चित्तगत पदार्थ स्थित हो उसे वह जानता है । पैंतालीस लाख योजनमें मानुषोत्तर शैलकी कोई मर्यादा नहीं । मानुषोत्तर शैलके बाहर भी यह क्षेत्र हो सकता है । इस विषयको दो व्याख्यान और उपलब्ध होते हैं। प्रथम तो यह कि ' मानुषोत्तर शैल' पद उपलक्षण नहीं है, किंतु इसके भीतरके चित्तगत पदार्थको ही जानता है, और दूसरा यह कि इसके भीतर स्थित जीवोंके चित्तगत पदार्थको यद्यपि जानता है फिर भी चित्तगत वह पदार्थ लोकान्त तकका भी यदि हो तो उसे भी जानता है । किन्तु वीरसेन स्वामी इन दोनों व्याख्यानोंको स्वीकार नहीं करते । प्रथम मतके सम्बन्ध में उनका कहना है कि मानुषोत्तर शैलको यदि मर्यांदा माना जाता है तो इसका यह अर्थ होता है कि वह शैल मन:पर्ययज्ञानमें रुकावट करता है। ऐसा हो नहीं सकता, क्योकि, मन:पर्ययज्ञान पराधीन ज्ञान नहीं है । इसलिए यहां मानुषोत्तर शैलको पैंतालीस लाख योजन क्षेत्रका उपलक्षण ही मानना चाहिए । दूसरे मतके संबंध में उनका कहना यह है कि यदि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान मानुषोत्तर शैलके भीतर स्थित जीवोंके चित्तगत लोकान्त तकके विषयको जानता है तो वह लोकान्त तकक जीवोंके चित्तको भी जान सकता हैं, और ऐसी हालत में फिर क्षेत्रकी मर्यादा मानुषोत्तर शैल तककी नहीं बन सकती । इसलिए यही निश्चित होता है कि मन:पर्ययज्ञानका जो क्षेत्र है उसके भीतर चित्तगत विषयको यदि वह उसके क्षत्र के भीतर हो तो जानता है, अन्यथा नहीं जानता । यह सब विपुलमतिमनः पर्ययज्ञानावरणीय कर्म है ॥ ७८ ॥ यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसका अर्थ पहिले कहा जा चुका है। इस प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मका कथन किया । 8 प्रतिषु ' विहल्लत्तावत्तदो ' इति पाठ [ Jain Education International ताप्रतौ ' वृत्तत्थौदो ' इति पाठ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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