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५, ५, ७७.) पयडिअणुओगद्दारे विउलमदिमणपज्जयणाणपरूवणा ( ३४३
खेत्तदो ताव जहण्णण जोयणपुधत्तं ।। ७६ ।। सुगमं। उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरादो णो बहिद्धा ७७।
माणसुत्तरसेलो एत्थ उवलक्खणभूदो, ण तंतो; तेण पणदालीसजोयणलक्खखेत्तभंतरे द्विवाणं चिताविसयं तिकालगोयरं जाणवि ति भणिवं होदि । तेण माणुसोत्तरसेलस्स बाहिरे वि सगविसई भदक्खेत्तंतो टाइदूण चितेमाणदेव तिरिक्खाणं चिताविसयं पि विउलमदिमणपज्जयणाणी जाणदि त्ति सिद्ध। के वि आइरिया माणसुत्तरसेलस्स अभंतरे चेव जाणदि ति भणंति । तेसिमहिप्पाएण माणुसोत्तरसेलादो बाहिरभावावगमो थि। माणुसुत्तरसेलमंतरे चेव द्वाइदूण चितिदं जाणदि त्ति के वि आइरिया भणंति । तेसिमहिप्पाएण लोगंतट्ठियअत्थो वि पच्चक्खो*। एदे दो वि अत्था ण समंजसा, सगणाणपहुपदलंतोपदिददव्वस्स अणवगमाणुववत्तीदो। ण च मणपज्जयणाणं माणसत्तरसेलेण पडिहम्मइ, अपरायत्तत्तण ववहाणविवज्जियस्स बाहाणुववत्तीदो। ण च लोगंतट्ठियमत्थं जाणंतो तत्थट्टिय
क्षेत्रको अपेक्षा जघन्यसे योजनपृथक्त्वप्रमाण क्षेत्रको जानता है ॥ ७६ ।। यह सूत्र सुगम है। उत्कर्षसे मानुषोत्तर शैलके भीतर जानता है, बाहर नहीं जानता ।। ७७ ॥
मानुषोत्तर शैल यहां उपलक्षणभूत है, वास्तविक नहीं है। इसलिये पैंतालीस लाख योजन क्षेत्रके भीतर स्थित जीवोंके चिन्ताको विषयभूत त्रिकाल गोचर पदार्थको वह जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इससे मानुषोत्तर शैलके बाहर भी अपने विषयभूत क्षेत्रके भीतर स्थित होकर विचार करनेवाले देवों और तिर्यञ्चोंकी चिन्ताके विषयभत अर्थको भी विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानी जानता है, यह सिद्ध होता है।
कितने ही आचार्य मानुषोत्तर शैलके भीतर ही जानता है, ऐसा कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार मानुषोत्तर शैलसे बाहरके पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता । मानुषोतर शैलके भीतर ही स्थित होकर चिन्तित अर्थको जानता है, ऐसा भी कितने ही आचार्य कहते हैं। उनके अभिप्रायानुसार लोकके अन्त में स्थित अर्थको भी प्रत्यक्ष जानता है। किन्तु ये दोनों ही अर्थ ठाक नहीं हैं, क्योंकि, तदनुसार अपने ज्ञानरूपी पुष्पदलके भीतर आये हुए द्रव्यका अनवगम बन नहीं सकता । मनःपर्ययज्ञान मानुषोत्तर शैलके द्वारा रोक दिया जाता है, यह तो कुछ संभव है नहीं; क्योंकि, स्वतन्त्र होनेसे व्यवधानसे रहित उक्त जानकी प्रवृत्ति में बाधाका होना संभव नहीं हैं। दूसरे, लोकके अन्त में स्थित अर्थको जाननेवाला यह ज्ञान वहां स्थित चित्तको नहीं जाने,
म. बं. १, पृ. २६ क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण मानषोत्तरशैलस्याभ्यन्तरं न बहिः 1 स. सि. १-२३ त. रा. १, २३, १० तं चेव विउलमई अड्राइज्जेहिमंगलेहि अब्भहिअतरं विउलतरं विसूद्धतरं वितिमिरतराग खेत्तं जाणइ पासइ। नं. सू. १८. रणरलोए त्ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वस्स । जम्हा तग्घणपदरं मणपज्जयखेत्तमुद्दि] 11 xxxxx तदपि कुन: मानुषोत्तराबहिश्चतु:कोणस्थिततिर्यगमराणां परिचिन्तितानां उत्कृष्टविपूलमतेः परिज्ञानात 1 गो. जी. जी. प्र. ४५६.
* प्रतिषु ‘पच्चक्खाए' इति पाठ 1 अ-आ-काप्रतिषु णाणवहुवदलंतो' इति पाठः ।
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