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छक्खंडागमे वग्गणा-खंड
( ५, ५, ७३.
किंचि भूओ - अप्पणो परेसि च वत्तमाणाणं *जीवाणं जाणदि अवत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि ॥ ७३ ॥
fare अपरिणयं विस्सरिदचितियवत्थु चिताए* अवावदं च मणमव्वत्तं, अवरं वत्तं । वत्तमाणाणमवत्तमाणाण वा जीवाणं चिताविसयं मणपज्जयणाणी जादि । जं उज्जुवाणुज्जुवभावेण चितिदमद्धचितिदं चितिज्जमाणमद्धचितिज्जमाणं चितिहिदि अद्धं चितिहिदि वा तं सव्वं जाणदि त्ति भणिदं होदि
कालदो ताव जहणेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि ॥ ७४ ॥
सुगममेदं ।
जीवाणं गदिमाग पदुप्पावेदि ॥ ७५ ॥
एहि काले जीवाणं गदिमागद भुक्तं कथं पडिसेविदं च पञ्चवखं पटुप्पादेदि जाणदि त्ति भणिदं होदि ।
और भी व्यक्त मनवाले अपने और दूसरे जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है, तथा अव्यक्त मनवाले जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाले अर्थको जानता है । ७३ । चिन्ता में अर्ध परिणत, चिन्तित वस्तुके स्मरणसे रहित और चिन्तामें अव्यापृत मन अव्यक्त कहलाता है । इससे भिन्न मन व्यक्त कहलाता है । व्यक्त मनवाले और अव्यक्त मनवाले जीवोंके चिन्ता विषयको मन:पर्ययज्ञानी जानता है । ऋजु और अनृजु रूपसे जो चिन्तित या अर्ध चिन्तित है, वर्तमान में जिसका विचार किया जा रहा है या अर्ध विचार किया जा रहा है, तथा भविष्य में जिसका विचार किया जायेगा या आधा विचार किया जायेगा उस सब अर्थको जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
कालको अपेक्षा जघन्यसे सात आठ भवोंको और उत्कर्षसे असंख्यात भवोंको जानता है । ७४ ।
यह सूत्र सुगम है ।
जीवोंकी गति और अगतिको जानता है । ७५ ।
इतने कालके भीतर जीवोंकी गति, आगति, भुक्त, कृत और प्रतिसेवित अर्थको प्रत्यक्ष ' पदुप्पादेदि ' अर्थात् जानता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
का तात्यो: ' वट्टमाणाणं ' इति पाठ 1 का-ताप्रत्या: ' अवट्टमाणाणं ' इति पाठ: 1 ताप्रती चितियवत्थु, चिताए ' इति पाठ: 1 अ आ-काप्रति 'वत्तमण्णाणमवत्तमण्णाणं ' इति पाठः । अप्रती जीवाणं जाणदि ' इति पाठ । चितियमचितियं वा अद्धं चितियमणेय भेयगयं ] ओहि वा विउलमदी लहिऊण विजाणए पच्छा। गो. जी. ४४८. म. बं. १, पृ २६. द्वितीयं कालतो जघन्येन सप्ताष्टो भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागत्यादिभिः प्ररूपयति । स. सि. १-२३. त. रा. १, २३, १० तं चैव विलमई अब्भहियतरागं विउलतरांग विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ 1 नं सू. १८
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