Book Title: Shatkhandagama Pustak 13
Author(s): Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 360
________________ पर्याअणुओगद्दारे परमोहिदव्व - खेत्त-काल- भावपरूवणा ५,५, ५९.) रूवगज लहइ दव्वं खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ १५ ॥ परमोहि ति णिसादो हेट्ठिमो सव्वो सुत्तकलओ देसोहीए परुविदो त्ति घेत्तव्वो । परमा ओही मज्जाया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाणं । किं परमं ? असंखेचज लोगमेत्तसंजमवियप्पा | परमोहिणाणं संजदेसु चेव उप्पज्जदि । उप्पण्णे हि परमोहिणाणे सो जीवो मिच्छत्तं ण कयावि गच्छदि, असंमंज पि णो गच्छदित्ति भणिदं होदि । परमो हिणाणस्स देवेपणस्स असंजमो किण्ण लब्भदि ति चे ण, तत्थ परमोहिणाणं पडिवादाभावेण उप्पादाभावादो । देसं सम्मत्तं, संजमस्त अवयवभावादी, तमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं देसोहिणाणं । तत्थ मिच्छत्तं पि गच्छेज्ज असंजमं* पि गच्छेज्ज अविरोहादो । सव्वं केवलणाणं, तस्स विसओ जो जो अत्थो सो वि सव्वं उवयारादो । सव्वमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं सव्वोहिणाणं । एदं पि णिग्गंथाणं चेव होदि । 'असंखेज्जाणि लोग ( ३२३ लोकप्रमाण समय काल है । तथा वह क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवोंके द्वारा परिच्छिन्न होकर प्राप्त हुए रूपगत द्रव्यको जानता है । १५ । 'परमावधि' ऐसा निर्देश करनेसे पिछला सब सूत्रकलाप देशावधिज्ञानका प्ररूपण करता है, ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिए । परम अर्थात असंख्यात लोक्मात्र संयमभेद हो जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह परमावधिज्ञान कहा जाता है । शंका - यहां परम शब्दका क्या अर्थ है ? समाधान- यहां परम शब्द से असंख्यात लोकमात्र संयम के विकल्प अभीष्ठ हैं । परमावधिज्ञानकी उत्पत्ति संयतोके ही होते हैं । परमावधिज्ञानके उत्पन्न होनेपर वह जीव न कभी मिथ्यात्वको प्राप्त होता है और न कभी संयमको भी प्राप्त होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य हैं। शंका - परमावधिज्ञानीके मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर असंयमकी प्राप्ति कैसे नहीं होती है ? नहीं क्योंकि, परमावधिज्ञानियोंका प्रतिपात नहीं होनेसे वहाँ उनका उत्पाद सम्भव नहीं है । समाधान 'देश' का अर्थ सम्यक्त्व है, क्योंकि, वह संयमका अवयव है । वह जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात् मर्यादा है वह देशावधिज्ञान है। उसके होनेपर जींव मिथ्यात्वको भी प्राप्त होता है और असंयमको भी प्राप्त होता है, क्योंकि, ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है । ' सर्व ' का अर्थ केवलज्ञान है, उसका विषय जो जो अर्थ होता हैं वह भी उपचार से सर्व कहलाता है । सर्व अवधि अर्थात् मर्यादा जिस ज्ञानकी होती है वह सर्वावधिज्ञान है । यह भी निर्ग्रन्थौके ही होता है । ' असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि ' इसमें लोकमात्रका अर्थ एक घनलोक Jain Education International षट् पु. ९, पृ. ४२. सब्वबहुअगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिज्जंसु । खेत्तं सव्वदिसागं परमोही खेत्तणिद्दिट्ठो । नं सू गा. ४९. वि. भा. ६०१ ( नि. ३१ ) आ-का-ताप्रतिषु 'वि' इति पाठ: * प्रतिषु 'देससम्मत्तं ' इति पाठः । प्रतिषु ' असंजदं ' इति पाठ: : For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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