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५, ५, ६२. )
पयडिअणुओगद्दारे उजुमदिमगपज्जयणाणपरूवणा
( ३३१
उज्जवमणेण विणा उज्जुववघणपवृत्तीए अभावादो । चितिदं कहिदे संते जदि जाणदि तो मणपज्जयणाणस्स सुदणाणत्तं पसज्जदित्ति वृत्तं ण, एदं रज्जं एसो राया वा केत्तियाणि वस्साणि णंददि त्ति चितिय एवं चेव बोल्लिदे संते पच्चक्खेण रज्जसंताणपरिमाणं रायउट्ठदि च परिच्छंवंतस्स सुदणाणत्तविरोहादो ।
+ जमुज्जवभावेण चितिय उज्जुवसरूवेण अहिणइदमत्थं जाणदि तंपि उज्जुमदिम जपज्जवणाणं णाम, उजुमदीए विणा कायवावारस्स उजुवत्तिविरोहादो। जदि मणपज्जयणाणमदिय णोइंदिय-जोगादिणिरवेक्खं संतं उप्पज्जदि तो परोसि मण वयण कायवावारणिरवेक्खं संतं क्रिष्ण उप्पज्जदि ? ण, विउलमइमणपज्जयणाणस्स तहा उत्पत्तिदंसणादो 4 | उज्जुमदिमणपज्जयणाणं तण्णिरवेक्खं किष्ण उप्पज्जदे ? ण, मनः पर्ययज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमस्य वैचित्र्यात् । जहा ओहिणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदेस संबंधिसंठाणपरूवणा कदा, मणपज्जयणाणावरणीयक्खओवसमगदजीवपदे
समाधान- नहीं, क्योंकि, यहां पर भी ऋजु मनके विना ऋजु वचनकी प्रवृत्ति नहीं होती। शंका - चिन्तित अर्थको कहनेपर यदि जानता है तो मन:पर्ययज्ञानके श्रुतज्ञानपना प्राप्त
होता है ?
समाधान - नहीं, क्योंकि यह राज्य या यह राजा कितने दिन तक समृद्ध रहेगा; ऐसा चिन्तवन करके ऐसा ही कथन करनेपर यह ज्ञान चूंकि प्रत्यक्षसे राज्यपरम्पराकी मर्यादाको और राजाकी आयुस्थितिको जानता है, इसलिए इस ज्ञानको श्रुतज्ञान माननेमें विरोध आता है। जो ऋजुभावसे विचार कर एवं ऋजुरूपसे अभिनय करके दिखाये गये अर्थको जानता है वह भी ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान है, क्योंकि, ऋजु मतिके विना कायकी क्रियाके ऋजु होने में विरोध आता है ।
शंका - यदि मन:पर्ययज्ञान इन्द्रिय, नोइन्द्रिय और योग आदिकी अपेक्षा किये विना उत्पन्न होता है तो वह दूसरोंके मन, वचन और कायके व्यापारकी अपेक्षा किये बिना ही क्यों नहीं उत्पन्न होता ?
समाधान नहीं, क्योंकि विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानकी उस प्रकारसे उत्पत्ति देखी जाती है ।
शंका- ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान उसकी अपेक्षा किये विना क्यों नहीं उत्पन्न होता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमकी यह विचित्रता है ।
शंका जिस प्रकार अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोंके संस्थानका कथन किया है उसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशमगत जीवप्रदेशोंके संस्थानका कथन
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तातो 'रायाउदि इंदियणोई
XXX आ-काप्रत्यो: 'पच्चक्खेप, ताप्रती' पच्चक्खेप ( ण ) ' इति पाठः । इति पाठ: 1 ताप्रतावतः प्राक् 'जदि मणपज्जव ( गाणं ) इत्यधिक: पाठ उपलभ्यते 1 दिय - जोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि 1 णिरवेक्खिय विउलमदी ओहिं वा होदि नियमेण । गो. जी. ४४५, प्रतिषु तं णिरवेक्खं ' इति पाठः ।
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